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________________ तुम उसमें प्रविष्ट नहीं हुए होते। यह ऐसा ही है जैसे तुम सैकड़ों मील की दूरी से हिमालय के शिखरों को देखते हो। तुम उन तक अभी पहुंचे नहीं हो, तो भी तुम उन्हें बहुत दूर से देख सकते हो। तुम शिखरों को देख सकते हो; तुम्हें उनका सौंदर्य आंदोलित कर सकता है। तुम खोल सकते हो अपनी खिड़की और दूर चांद को देख सकते हो, और किरणें छू सकती हैं तुम्हें और तुम प्रकाशित हो सकते हो, तुम्हें गहरी अनुभूति हो सकती है। लेकिन इस झलक से तुम बार-बार गिरोगे। जब शुद्ध चैतन्य उपलब्ध हो जाता है-दूर से मिली झलक नहीं, बल्कि तुम प्रविष्ट हो चुके होते हो उसमें तो फिर तुम उसे नहीं खो सकते। एक बार वह उपलब्ध हो जाता है तो हमेशा-हमेशा के लिए उपलब्ध हो जाता है। तुम उससे बाहर नहीं आ सकते। क्यों? क्योंकि जिस क्षण तुम उसमें प्रवेश करते हो, तुम मिट जाते हो। तो कौन बाहर आएगा? बाहर आने के लिए कम से कम तुम्हें तो होना चाहिए। लेकिन शुद्ध चैतन्य में प्रवेश करते ही अहंकार एकदम मिट जाता है, 'स्व' पूरी तरह तिरोहित हो जाता है। तो कौन आएगा वापस! झलक में तुम नहीं मिटते; तुम मौजूद रहते हो। तुम एक झलक ले सकते हो और फिर बंद कर सकते हो आंखें। तुम एक झलक ले सकते हो और फिर बंद कर सकते हो खिड़की। वह झलक स्मृति बन जाएगी, वह तुम्हें पुकारेगी, तुम्हारा पीछा करेगी। वह तुम्हारे सपनों में आएगी। कई बार, अचानक, तुम्हें एक गहन अभीप्सा होगी उस झलक को पाने की, लेकिन वह सदा-सदा की उपलब्धि नहीं हो सकती। झलक केवल झलक है। अच्छी है, सुंदर है, लेकिन उसी पर रुक मत जाना; क्योंकि वह शाश्वत नहीं है। वह बार-बार खो जाएगी क्योंकि तुम अभी भी बचे हो। जब भी कोई झलक मिले, तो बढ़ जाना शिखरों की ओर, चल देना चांद की ओर-चांद के साथ एक हो जाना। जब तक तुम मिट नहीं जाते तुम वापस गिरोगे, तुम्हें वापस आना होगा संसार में, क्योंकि अहंकार घुटन अनुभव करेगा झलक के साथ। अहंकार को मृत्यु जैसा भय पकड़ेगा। वह कहेगा, 'बंद करो खिड़की। बहुत देख लिया तुमने चांद को। अब मूढ़ता मत करो। पागल मत बनो, लूनाटिक मत बनो।' लूनाटिक का अर्थ है चांदमारा। यह शब्द आया है कार से, चांद से। पागलों को लूनाटिक कहते हैं, चांदमारा, स्वप्नदर्शी-दूर के सपनों की सोचने वाला। तो तुम्हारा मन, तुम्हारा अहंकार कहेगा, 'लूनाटिक मत बनो। अच्छा है, कभी-कभी खिड़की खोल लो और देख लो चांद को, लेकिन उससे आविष्ट मत हो जाओ। संसार प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी। तुम पर जिम्मेवारियां हैं, जिन्हें पूरा करना है।' और अहंकार तुम्हें राजी कर लेगा, फुसला लेगा, बुला लेगा संसार की तरफ; क्योंकि अहंकार केवल संसार में बना रह सकता है। जब भी संसार के पार की कोई झलक तुम्हें पकड़ती है, तो अहंकार भयभीत हो जाता है, आतंकित हो जाता है, डर जाता है। वह बात मौत जैसी लगती है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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