SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्ति को केंद्रित होना चाहिए स्वयं में, क्योंकि स्वयं से मार्ग जाता है परमात्मा तक अस्तित्व तक । यदि तुम भीड़ से जुड़े हो तो तुम एक बंद गली में हो वहां से फिर और कोई विकास संभव नहीं है। तुम एक दीवार के सामने खड़े हो । लेकिन राजनीतिज्ञ निर्भर करते हैं तुम्हारे बलिदान पर। वे तुम्हें प्रसन्न नहीं देखना चाहते; वे नहीं देखना चाहते तुम्हारी मुस्कुराहटें, तुम्हारी हंसी । वे तुम्हें दुखी देखना चाहते हैं, इतना दुखी कि तुम रोष में आकर विध्वंसक हो जाओ, क्रोधी हो जाओ। तब तुम्हारा उपयोग किया जा सकता है, साधन के रूप में तुम्हारा उपयोग किया जा सकता है। वे तुम्हें सिखाते हैं स्वार्थरहित होना, वे तुम्हें सिखाते हैं शहीद होना; वे तुम्हें सिखाते हैं, 'दूसरों के लिए अपना जीवन बलिदान कर दो।' और यही वे दूसरों को भी सिखा रहे हैं। यह बहुत मूढ़तापूर्ण खेल जान पड़ता है। मैं तुम्हें निःस्वार्थी होना नहीं सिखाता, क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि तुम स्वार्थी हो तो तुम अपने आप ही, सहज ही निःस्वार्थी हो जाते हो। यदि तुम स्वार्थी नहीं हो तो तुम चूक गए हो स्वयं को ही; अब तुम किसी और के संपर्क में भी नहीं आ सकते - उस आधारभूत संपर्क का ही अभाव है। पहला चरण ही चूक गया है। तो भूल जाओ संसार को और समाज को और यूटोपिया को और कार्ल मार्क्स को भूल जाओ इन सब बातो को जिंदगी छोटी है। आनंदित होओ, प्रफुल्लित होओ, प्रसन्न होओ, नाचो और डूबो प्रेम में; और तुम्हारे प्रेम और नृत्य से, तुम्हारे गहन स्वार्थ से उमड़ने लगेगी एक ऊर्जा । तुम दूसरों के साथ उसे बांट पाओगे। मेरे देखे प्रेम सबसे बड़ा स्वार्थ है। यदि इससे भी गहरा स्वार्थ चाहते हो, तो है ध्यान, प्रार्थना । यदि तुम इससे भी गहरा स्वार्थ चाहते हो, तो है परमात्मा । तुम किसी दूसरे के माध्यम से नहीं संबंधित हो सकते परमात्मा से; कोई दूसरा सेतु नहीं बन सकता । परमात्मा के साथ तुम्हें सीधा साक्षात्कार करना होता है, एकदम प्रत्यक्ष, बिना किसी माध्यम के उस परम अनुभव का साक्षात्कार तुम अकेले ही करोगे, अपने परम स्वात में। तो मैं स्वार्थ सिखाता हूं लेकिन यदि तुम मेरे स्वार्थ का अर्थ समझते हो तो तुम समझ लोगे उस सब को जो सुंदर है, उस सब को जो निःस्वार्य है। दूसरा प्रश्न: स्वार्थी होकर भी कोई दूसरों के प्रति सजग हो सकता है या नहीं?
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy