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________________ 'जो आदमी दोपहर को आया, वह भी एक निष्कर्ष लिए आया था। वह आस्तिक था, पक्का परंपरागत आस्तिक-उसका विश्वास था कि ईश्वर है। वह भी उसी मतलब से आया था, मेरा समर्थन पाना चाहता था। 'तीसरा आदमी जो आया, वह बिना किसी धारणा के आया था, उसका कोई निष्कर्ष नहीं था। वह जिज्ञासु था। वह किसी बात में विश्वास नहीं रखता था : वह किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा था। वह रास्ते पर था; वह शुद्ध था। मुझे उसके साथ मौन ही रहना पड़ा। अब, यदि तुम्हारे पास भी वही प्रश्न है, तो तुम पूछ सकते हो।' प्रतिसंवेदन सदा ही अलग होगा, और फिर भी गहरे तल पर अंतस सत्ता की एक अनवरत धारा उससे बहती होगी। बुद्ध पुरुष सदा व्यक्ति में, स्थिति में झांकते हैं। स्थिति ही निर्णय लेती है, न कि बुद्ध पुरुष का मन; उनके पास मन होता ही नहीं। तो तुम पूछते हो, 'बुद्ध पुरुष दैनंदिन जीवन में समग्ररूपेण कैसे भाग लेते हैं? यदि तुम कोशिश करते हो समग्र रूप से भाग लेने की, तो वह समग्र न होगा : कोई प्रयास कभी भी समग्र नहीं हो सकता। कोई विधि, कोई तरकीब कभी समग्र नहीं हो सकती, क्योंकि तुम करने वाले होओगे, तुम तो उससे अलग रह जाओगे। तुम समग्र होने की कोशिश कर रहे होओगे। तुम कोशिश कैसे कर सकते हो समग्र होने की? तुम विश्रांत हो जाओ, केवल तभी समग्रता पैदा होती है। तुम प्रवाह के साथ बहो, तभी तुम समग्र होते हो। समग्रता कोई अनुशासन नहीं है। सारे अनुशासन आशिक होते हैं। इसलिए जो आदमी बहुत ज्यादा अनुशासित होता है, वह कभी नहीं पहुंच पाएगा सत्य तक, क्योंकि वह सदा बोझ लिए रहेगा-निरंतर कुछ न कुछ करते हुए. स्थूल या सूक्ष्म, सतह पर या गहराई में, लेकिन रहेगा वह सदा कर्ता ही। नहीं, बुद्ध पुरुष कर्ता नहीं हैं। असल में जब तुम विश्रांति में होते हो, तब होने का दूसरा कोई ढंग ही नहीं बचता-एकमात्र जो ढंग बचता है, वह है समग्र रूप से सहभागी होने का। उसमें कोई 'कैसे' नहीं होता। तम्हारे मन में प्रश्न उठता है, क्योंकि तम जानते नहीं कि सजगता क्या है। यह ऐसे ही है जैसे कोई अंधा आदमी पूछे, 'जिन लोगों के पास आंखें हैं, वे हाथ में लकड़ी लिए बिना कैसे ढूंढ लेते हैं अपना रास्ता?' यदि तुम उससे कहो कि उन्हें कोई जरूरत नहीं किसी लकड़ी की, कि उन्हें कोई जरूरत नहीं ढूंढने की, तो वह विश्वास न कर पाएगा। वह हंसेगा। वह कहेगा, 'तुम मजाक कर रहे हो। यह कैसे संभव हो सकता है? क्या आप यह कहना चाहते हो कि आंख वाले लोग बिना टटोले ही चलतेफिरते हैं?' अंधा आदमी इसे नहीं समझ सकता है। उसके पास इसका कोई अनुभव नहीं है। वह सदा टटोलता ही रहा है और तब भी बार-बार ठोकर खाता रहा है और गिरता रहा है। वह किसी भांति सँभले रहने की कोशिश करता रहा है। बुद्ध पुरुष संभालते नहीं हैं। वे अपने को छोड़ देते हैं, और हर चीज अपने आप ही ठीक होती है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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