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________________ के प्रलोभन को कि 'कौन शाति भंग कर रहा है', रोके रखा; लेकिन फिर वह चीज चलती ही चली गई; घंटों गुजर गये। शिष्य ने अपनी आंखें खोल ली और बोला, 'क्या कर रहे हैं आप?' गुरु ने कहा, 'मैं इस ईंट को चमकाने की कोशिश कर रहा हूं इसका दर्पण बना देने के लिए। 'शिष्य बोला, 'आप नासमझ हो। मैंने कभी नहीं सोचा था कि आप, जिनकी प्रतिष्ठा बुद्ध-पुरुष के रूप में है, वेश्तनी मूढ़ बात कर सकते हैं। ईंट कभी न बनेगी दर्पण, चाहे कितनी ही जोर से आप इसे लड़ लें पत्थर पर। यह पुरी तरह मिट तो सकती है, लेकिन यह दर्पण न बनेगी। आप बंद कीजिए यह बेतुकी बात। 'गुरु हंस पड़ा और बोला 'तुम भी करो बंद, क्योंकि चाहे कितना ही क्यों न रगड़ी तुम मन की ईंट को, वह कभी न बनेगी अंतरतम आत्मा। वह चमकती जाएगी और चमकती जाएगी और चमकती जाएगी, पर फिर भी वह न बनेगी तुम्हारी आंतरिक वास्तविकता। ' मन को गिरा देना है। ध्यान की विधियां, तरकीबें, उस गिराने में मदद देने की चालाकियां हैं लेकिन तब ध्यान भी तो गिरा देना है। अन्यथा, वही बन जाता है तुम्हारा मन। यह ऐसा है जैसे जब तुम्हारे पैर में कांटा चुभा हो, और तुम दूसरा कांटा पा लो, उस पहले काटे को तुम्हारे पैर में से हटा देने को, दूसरा कांटा मदद करता है, लेकिन तो भी दूसरा कांटा भी पहले की भांति कांटा ही है। दूसरा कांटा कोई फूल नहीं होता। जब पहला निकाला जा चुका होता है दूसरे की मदद से तो क्या करोगे तुम? क्या तुम दूसरे को घाव में रख दोगे क्योंकि उसने बहुत ज्यादा मदद की और काटा इतना महान था कि तुम्हें पूजा करनी पड़ी उसकी! क्या तुम पूजा करोगे दूसरे काटे की? नहीं, तुम दोनों को ही एक साथ फेंक दोगे। इस बात को खयाल में ले लेना है: मन एक काटा है, और सारी तरकीबें कांटा हैं, पहले काटे को बाहर निकालने की। ध्यान भी एक काटा है। जब पहला काटा बाहर हो जाता है, तब दोनों को साथ-साथ ही फेंक देना होता है। यदि तुम एक घड़ी भी गंवा देते हो, तब पहले काटे के स्थान पर होगा दूसरा कांटा। तुम उसी मुसीबत में पड़े होंगे। इसीलिए जरूरत होती है सद्गुरु की जो कह सकता हो तुम से, 'अब आयी है ठीक घड़ी। गिरा दो इस ध्यान को और इस मूढ़ कार्यकलाप को। 'जब तक ध्यान तिरोहित ही न हो जाए ध्यान उपलब्ध नहीं हुआ होता है। जब ध्यान व्यर्थ पड़ जाता है, केवल तभी पहली बार तुम हो जाते हो ध्यानी। तरकीबें तुम्हारे लिए आविष्कृत की जाती रही हैं, क्योंकि तुम्हारे पास पहले से ही काटा होता है। कांटा वहां है पहले से ही। किसी उपाय की जरूरत है उसे बाहर ले आने के लिए। लेकिन सदा ध्यान रहे, भूलो मत कभी : कि दूसरा काटा भी काटा है पहले की भांति, और दोनों को ही फेंक देना है। क्योंकि तुम तो जान नहीं पाओगे, इसीलिए इतना महत्व दिया जाता है गुरु को, गुरु के सत्संग को। जब मन गिर जाता है, तो तुरंत ध्यान बन जाता है मन और फिर से अधिकृत कर लिए जाते हो
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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