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________________ कारण कहीं बाहर नहीं, वह तुम्हारे भीतर होता है, तुम्हारे दुख में छिपा होता है। दुख होता है बिलकुल धुएं की भांति। कहीं तुम्हारे भीतर मौजूद होती है आग। धुएं में गहरे उतरना ताकि तुम ढूंढ सको आग को। कोई नहीं ला सकता अकेले धुएं को बाहर क्योंकि वह तो साथ जन्मता है। लेकिन यदि तुम बाहर ले आते हो आग तो धुंआ अपने से ही अदृश्य होता है। कारण ढूंढ लेना, परिणाम तिरोहित हो जाता है, क्योंकि तब कुछ किया जा सकता है। ध्यान रहे, केवल कारण के साथ ही कुछ किया जा सकता है, परिणाम के साथ नहीं। यदि तुम परिणाम के साथ लड़ते चले जाते हो, तो वह सारा संघर्ष व्यर्थ होता है। यही है अर्थ पतंजलि की प्रति-प्रसव विधि का कारण तक लौट जाओ, परिणाम में उतरो और कारण तक पहुंच जाओ। कारण वहीं कहीं होगा जरूर। परिणाम होता है ठीक तुम्हें घेरने वाले धुएं की भांति ही, लेकिन एक बार धुआ घेर लेता है तुम्हें, तो तुम भाग कर चले जाते हो आशा में। तुम स्वप्न देखते हो उन दिनों का जब कोई धुआ न रहेगा। यह बिलकुल मूढ़ता है। न ही केवल मूढ़ता है, बल्कि आत्मघाती बात है, क्योंकि इसी तरह तो तुम चूक रहे हो कारण को। पतंजलि कहते हैं, 'विवेकपूर्ण व्यक्ति.....।' संस्कृत में शब्द है विवेक-इसका अर्थ होता है जागरूकता, इसका अर्थ होता है होशपूर्णता, इसका अर्थ होता है विवेकपूर्ण शक्ति। क्योंकि जागरूकता के दवारा तम भेद कर सकते हो कि कौन चीज क्या है क्या सत्य है, क्या असत्य; क्या परिणाम है, क्या कारण। प्रज्ञावान व्यक्ति, विवेकशील व्यक्ति, जागरूक व्यक्ति जान लेता है कि हर चीज ले जाती है दुख की ओर। जैसे कि तुम हो, हर चीज ले जाती है दुख की ओर। और यदि तुम बने रहते हो जैसे तुम हो, तो हर चीज ले जाती ही रहेगी दुख की ओर। यह कोई स्थितियों को ही बदलने की बात नहीं है, यह तुम्हारे भीतर बहुत गहराई तक उतरी चीज की बात है। तुम्हारे भीतर की कोई बात आनंद की संभावना को ही कुंठित कर देती है। तुम्हारे भीतर की कोई चीज तुम्हारी आनंदमय अवस्था तक खिलने के विरुद्ध होती है। जागा हुआ आदमी जान लेता है कि हर चीज दुख की ओर ले जाती है, हर चीज। तुमने कर ली होती है हर बात, लेकिन क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि हर बात दुख की ओर ले जाती है? यदि तुम घृणा करते हो, तो वह बात ले जाती दुख तक; यदि तुम प्रेम करते हो, तो वह बात ले जाती दुख तक। जीवन में कोई तर्कयुक्त ढंग दिखायी नहीं पड़ता है। व्यक्ति घणा करता है, तो यह बात ले जाती है दुख की ओर। सीधा तर्क तो कहेगा कि यदि घणा ले जाती है दुख तक, तब प्रेम को तो जरूर ले जाना चाहिए सुख तक। फिर तुम प्रेम करते हो, और प्रेम भी ले जाता है दुख की ओर ही। क्या है यह सब? क्या जीवन बिलकुल ही अतर्क्स और बेतुका है? क्या कहीं कुछ तर्कयुक्त नहीं है? क्या यह एक अराजकता है? तुम कर लेते हो जो कुछ भी करना चाहते हो, और अंत में चला आता है दुख ही। ऐसा मालूम पड़ता है कि दुख एक राजमार्ग है और हर मार्ग उस तक ही :
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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