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________________ समझ के साथ बड़ा हुआ था कि अंततः व्यक्ति को गुरु के पास समर्पण करना ही होता है। यह बात सीधी-साफ थी, यह अनुकूल बैठती थी। कृष्णमूर्ति ने काम किया पश्चिम में। वे स्वयं विकसित हुए गुरुओं के द्वारा। बहुत-बहुत गहन ढंग से उन्हें मदद मिली गुरुओं से। गुरु जो देह में थे और गुरु जो देह में न थे, सभी ने मदद की उनकी, उन्होंने विकसित होने में उनकी मदद की। लेकिन फिर उन्होंने कार्य किया पश्चिम में और वे जान गए, जैसे कि कोई भी जान ही लेगा, कि पश्चिम समर्पण करने को तैयार नहीं। इसलिए वे कृष्ण की भांति नहीं कह सकते, 'आओ और मुझे समर्पण कर दो।' पश्चिमी अहंकार के लिए सब से अच्छा मार्ग है यह कहना कि तुम अपने से पा सकते हो। यही है उपाय; गुरु के पास समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं। यही है आधार तुम्हें आकर्षित करने का छ समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हारा अहंकार गिराने की कोई जरूरत नहीं, तुम बस तुम रहो। यह है युक्ति और लोग फंसे इस युक्ति में। उन्होंने सोचा कि समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं, कि वे स्वयं जैसे बने रह सकते हैं, कि दूसरे से सीखने की कोई जरूरत नहीं, केवल अपना प्रयास ही चाहिए। निरंतर कई वर्षों से वे जा रहे हैं कृष्णमूर्ति के पास। किसलिए? सीखने को? यदि तुम अकेले हो सकते हो तो क्यों जाते हो कृष्णमूर्ति के पास? एक बार तुमने सुन लिया कि वे कहते हैं, 'अकेले तुम पा सकते हो' –तो उनकी बात अंतिम बन समाप्त हो जानी चाहिए तुम्हारे लिए। लेकिन तुम्हारे लिए तो उनकी बात अंतिम बनी ही नहीं। वस्तुत: अनजाने में ही तुम बन चुके होते हो एक अनुयायी। बिना तुम्हारे जाने ही तुम फंस चुके हो। कहीं गहरे में, समर्पण घट गया है। वह तुम्हारा बाहरी अहंकार बचा रहे हैं तुम्हें गहरे में मार देने को। उनका ढंग अप्रत्यक्ष है। लेकिन कोई नहीं पाता अकेले। किसी ने कभी नहीं पाया अकेले, क्योंकि बहुत से जन्मों तक इस पर कार्य करना होता है-मैंने काम किया गुरुओं के साथ, मैंने काम किया साधक -समूहों के साथ; मैंने काम किया अकेले, लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि अंतिम घटना संचित परिणाम है। अकेले काम करना, साधक-समूह के साथ काम करना, गुरुओं के साथ काम करना, यह एक संचित परिणाम लाता है। अकेले होने पर जोर मत देना, क्योंकि वह जोर देना ही एक बाधा बन जाएगा। समूहों को खोजो। और यदि तुम गुरु खोज सको, तो तुम धन्यभागी हो। वह अवसर चूकना मत। छठवां प्रश्न: क्या प्रति-प्रसव पीछे जाने की प्रक्रिया फिर से जीने की बजाय अनसीखा करने की हो सकती है?
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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