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________________ मैं शिक्षक नहीं हूं। मैं तुम्हें कुछ सिखा नहीं रहा। बल्कि इसके विपरीत, मैं तुम्हें अनसीखा होने में मदद देने की कोशिश कर रहा हूं। जो कुछ अनुकूल पड़ता हो तुम्हारे अनुसरण करना उसका मत सोचना कि वह सुसंगत है या नहीं। यदि वह तुम्हारे अनुकूल हो तो वह अच्छा है तुम्हारे लिए। यदि तुम अनुसरण करते हो उसका तो जल्दी ही तुम समझ पाओगे मेरी सारी असंगतियों की अंतर - सुसंगतता को मैं सुसंगत हूं। हो सकता है मेरे कथन न हों, लेकिन वे आते हैं एक ही स्रोत से। वे आते हैं मुझसे, अत: उन्हें होना ही चाहिए सुसंगत। वरना यह ऐसा कैसे संभव होता। वे आते हैं एक ही स्रोत से। आकारों में भिन्नता हो सकती है, शब्दों में भेद हो सकता है, लेकिन गहन तल पर वहा सुसंगतता जरूर व्याप्त होती है, जिसे तुम देख पाओगे, जब तुम स्वयं में गहरे उतर जाते हो। तो जो कुछ तुम्हें अनुकूल पड़ता हो उसे करना। इस बारे में तो बिलकुल चिंता ही मत करना कि मैंने इसके विरुद्ध कुछ कहां है या नहीं । यदि तुम वैसा 'करते' हो, तो तुम्हें अनुभव होगी मेरी सुसंगतता । यदि तुम केवल 'सोचते हो, तो तुम कभी कोई कदम नहीं बढ़ा पाओगे, क्योंकि हर दिन मैं बदलता जाऊंगा में और कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि मेरे पास कोई ठोस जड़ मन, चट्टान जैसा मन नहीं है, जो कि सदा एक जैसा ही रहता है। 1 मैं हूं पानी और हवा की भांति चट्टान की भांति नहीं। लेकिन तुम्हारा मन तो फिर-फिर सोचेगा कि मैंने यह कहां, और फिर मैंने वह कहां, तो ठीक क्या है? ठीक वह है जो आसानी से पहुंच जाता है तक सहज-सरल होता है ठीक, तुम्हें अनुकूल बैठे, वही ठीक होता है, सदा ही। हमेशा इस ढंग से सोचने की कोशिश करना कि तुम्हारी सता और मेरा कथन- यह सोचने की कोशिश करना कि वे अनुकूल बैठते हैं या नहीं यदि वे अनुकूल नहीं होते, तो मत करना चिंता मत सोचना उनके बारे में, मत व्यर्थ करना समय - आगे बढ़ जाना। कुछ ऐसी चीज आती होगी जो तुम्हारे अनुकूल पड़ती होगी। और तम हो बहुत सारे, इसीलिए मुझे बोलना पड़ता है बहुत लोगों के लिए। उनकी आवश्यकताएं अलग-अलग हैं, उनकी अपेक्षाएं अलग हैं, उनके व्यक्तित्व अलग हैं उनके पिछले जन्मों के कर्म अलग हैं। मुझे बोलना है बहुतो के लिए केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बोल रहा हूं। तुम तो केवल एक बहाना हो। तुम्हारे द्वारा मैं बोल रहा हूं सारी दुनिया से । इसलिए मैं कई तरह से बोलूंगा, मैं बहुत तरीकों से बनाऊंगा चित्र और मैं गाऊंगा बहुत से गीत । तुम तो सोचना तुम्हारे बारे में ही जो अनुरूप हो तुम्हारे, तुम गुनगुनाना वही गीत और भूल जाना दूसरों को। उस गीत को गुनगुनाने से, धीरे- धीरे, कोई चीज स्थिर हो जाएगी तुम्हारे भीतर, एक समस्वरता उदित होगी। उस समस्वरता से गुजरते हुए तुम समझ पाओगे मेरी सुसंगतता को, सारी असंगतियों के बावजूद। असंगति रह सकती है केवल सतह पर ही, लेकिन मेरी सुसंगति है अलग गुणवत्ता की । एक
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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