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________________ ओर। वे थे डाकिए की भांति ही। वे निरंतर ऊपर-नीचे आते-जाते रहते थे। ऊपर से संदेश लाते, नीचे से संदेश लाते। उन्होंने जारी रखा था अपना काम। वे स्वर्ग के मार्ग पर जाते थे और वे एक बहुत वृद्ध मुनि के बिलकुल पास से गुजरे जो अपनी माला के मनके लिए राम नाम जपते हुए वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। उसने देखा नारद की तरफ और वह बोला, 'कहां जा रहे हो तुम? क्या तुम स्वर्ग की ओर जा रहे हो? तो मेरे ऊपर एक कृपा करना। पुछना ईश्वर से कि और कितनी प्रतीक्षा करनी होगी'-इस प्रश्न में ही अधैर्य मौजूद था-'और जरा यह भी याद दिला देना उनको कि तीन जन्मों से मैं ध्यान, तप कर रहा कुछ भी किया जा सकता है, मैंने कर लिया है। हर बात की एक सीमा होती है!' इसमें मांग थी, अपेक्षा थी, अधीरता थी। नारद बोले, 'मै जा रहा हूं और मैं पूछंगा।' और उस वृद्ध मुनि के एक ओर ही एक दूसरे वृक्ष के नीचे, एक युवा व्यक्ति नाचते हुए और गाते हुए परमात्मा का नाम ले रहा था। मात्र मजाक में ही नारद ने उस युवा व्यक्ति से पूछ लिया, 'क्या तुम भी चाहोगे कि मैं तुम्हारे बारे में कुछ पूछू? कि कितना समय लगेगा?' लेकिन वह युवक इतना ज्यादा डूबा हआ था आनंद में कि उसने परवाह नहीं की। उसने उत्तर न दिया। फिर कुछ दिनों के बाद, नारद लौट आए। वे उस वृदध से बोले, 'मैंने पूछा था ईश्वर से और वह हंस पड़ा और बोला-कम से कम तीन जन्मों तक और।' उस के आदमी ने अपनी माला फेंक दी, और बोला, 'यह तो अन्याय हुआ। और जो कोई कहता है कि ईश्वर न्यायी है, वह गलत कहता है।' वह बहुत क्रोध में था। फिर नारद पहुंचे उस युवक के पास जो अभी भी नाच रहा था और कहने लगे वे उससे,. 'हालांकि तुमने नहीं भी कहा, मैंने पूछ लिया। लेकिन अब मैं भयभीत हूं तुमसे कह देने में, क्योंकि वह का आदमी इतना क्रोध में आ गया कि वह मुझे पीट भी सकता था। लेकिन वह युवक तो अभी भी नाच रहा था, पूछने में रुचि न ले रहा था। नारद बोले उससे, 'मैने पूछा था उनसे, और ईश्वर ने कहा, कह देना उस युवक से कि जिस वक्ष के नीचे वह नाच रहा है उसी के पत्ते गिन ले; इससे हले कि वह उपलब्ध हो, उसे उतनी ही बार और जन्म लेना होगा।' युवक ने सुना और बड़े आनंद में डूब गया-हंसा और कूदा और उत्सव मनाने लगा। वह बोला, 'इतनी जल्दी? क्योंकि पृथ्वी तो पूरी भरी पड़ी है वृक्षों से, लाखों-लाखों वृक्षों से और बस यही पते और इतनी ही संख्या? इतनी जल्दी? परमात्मा की असीम करुणा है, और मैं इसके योग्य नहीं।' और ऐसा कहा जाता है कि तुरंत ही वह उपलब्ध हो गया। उसी क्षण शरीर गिर गया। तत्क्षण ही वह संबोधि को उपलब्ध हुआ। यदि तुम्हें जल्दी होती है, तो समय लगेगा इसमें। यदि तुम्हें जल्दी नहीं होती तो यह संभव है बिलकुल इसी क्षण। पतंजलि प्रतिकारक हैं, एंटिडोट हैं उनके लिए जो जल्दी में होते हैं, और झेन है उनके लिए जो जल्दी में नहीं हैं। और इसके ठीक विपरीत घटता है; जिन लोगों को कोई जल्दी नहीं होती, वे पतंजलि की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यह गलत है। यदि तुम्हें जल्दी है, तो अनुसरण करो पतंजलि का, क्योंकि वे तुम्हें खींचते-बढ़ाते चलते चलेंगे और तुम्हें तुम्हारे चेतना-बोध तक ले आएंगे। वे इतने लंबे समय
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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