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________________ और गुरु का सान्निध्य बहुत मदद दे सकता है, लेकिन वह भी तुम पर निर्भर करता है। तुम शारीरिक रूप से गुरु के निकट रह सकते हो, और तुम शायद बिलकुल ही निकट न हो उसके। क्योंकि गुरु के साथ होने में बात शारीरिक निकटता की नहीं होती, बात होती है कि तुम कितने खुले होते हो उसके प्रति, कितनी आस्था रखते हो तुम, कितना तुम्हारा प्रेम होता है उसके प्रति, तुम्हारे अस्तित्व का कितना तुम दे सकते हो उसे। यदि तुम वास्तव में ही निकट होते हो, उसका अर्थ है यदि तुम आस्था रखते हो और प्रेम करते हो, तो फिर दूसरी और कोई निकटता नहीं। यह बात स्थान की दूरी की नहीं, यह बात है प्रेम की। यदि तुम वास्तव में ही गुरु के निकट होते हो, तो सारे मार्ग, सारी विधियां गिराई जा सकती हैं। क्योंकि गुरु के निकट होना परम विधि है। उसके जैसा और कुछ अस्तित्व नहीं रखता है। उसकी तुलना में और कुछ नहीं है, तब तुम बिलकुल भूल सकते हो तमाम विधियों को, सारे पतंजलियों को; तुम बिलकुल ही भूल सकते हो उनके बारे में। गुरु के निकट होने मात्र से और गुरु को तुम्हारे अस्तित्व में प्रवेश करने देने से ही, यदि तुम बन जाते हो केवल एक ग्रहणशीलता, तुम्हारी ओर से बिना किसी चुनाव के, केवल एक खुला द्वार, तब एकदम इसी क्षण घटना संभव हो जाती है। और मैं तुम्हें याद दिला देना चाहूंगा कि उन सब विधियों द्वारा जो कि संसार में अस्तित्व रखती हैं, बहुत सारे लोग नहीं पहुंच पाए हैं। बहुत ज्यादा लोग पहुंचे हैं गुरु के निकट होने द्वारा। वह सब से बड़ी विधि है। लेकिन अंतत: हर चीज निर्भर करती है तुम पर। यही है समस्या, यही है समस्या की असली जड़ कि वह मुझ पर निर्भर नहीं। अन्यथा मैं तुम्हें दे चुका होता पहले ही। तब कहीं कोई समस्या न होती। एक बुद्ध ही काफी होता, और उसने दे दिया होता सबको क्योंकि उसके पास अपरिसीम है; तुम उसे निःशेष नहीं कर सकते। वे और और दे सकते हैं। और सदा तैयार होते हैं देने को, क्योंकि जितना ज्यादा वे देते हैं, उतना ज्यादा वे पाते हैं। जितना ज्यादा वे बांटते हैं, उतने ज्यादा अज्ञात स्रोत खुलते जाते हैं, अशात नदियां बहने लगती हैं उनकी तरफ। एक बुद्ध ने ही संबोधि दे दी होती सब प्राणियों को, यदि यह बात गुरु पर निर्भर होती तो। यह निर्भर नहीं है। तुम्हारे अज्ञान में, तुम्हारे मन की अहंकारयुक्त अवस्था में, तुम्हारे बंद कैद हुए अस्तित्व में, तुम अस्वीकार कर दोगे यदि बुद्ध उसे तुम्हें देना भी चाहते हों तो। जब तक तुम न चाहो तुम करोगे अस्वीकार। उसे तुम्हें तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध नहीं दिया जा सकता है। तुम्हें उसे प्रवेश करने देना होता है, और तुम्हें उसे प्रवेश करने देना होता है बड़े बोधपूर्वक, सतर्कता से और सजगता से। केवल गहरी जागरूकता में और गहरी ग्रहणशीलता में उसे ग्रहण किया जा सकता है। गुरु के समीप होने से, प्रेम और आस्था में उसके निकट होने से, और बिना तुम्हारे अपने चुनाव के जो कुछ वह करना चाहे करने देने से फिर कोई और चीज करने की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन फिर अपेक्षा मत रखना। तब अपने मन के ज्यादा गहरे में भी कोई मांग मत रखना, क्योंकि वही अपेक्षा और मांग ही अड़चन बन जायेगी। तब तुम केवल प्रतीक्षा करना। यदि वह बहुत-बहुत जन्मों तक
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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