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________________ बुद्ध भी मन का प्रयोग करते, लेकिन वे अपने मन का प्रयोग उस तरह करते जैसे तुम अपनी टांगों का करते हो। लोग मेरे पास आते रहते हैं और पूछते है, 'बुद्धपुरुष के मन को क्या हो जाता है? क्या वह विलीन ही हो जाता है, क्या वे उसका उपयोग नहीं कर सकते?' यह मालिक के रूप में विलीन हो जाता है, लेकिन दास के रूप में बना रहता है। वह एक निश्चेष्ट उपकरण के रूप में बना रहता है। यदि कोई बुद्ध इसका उपयोग करना चाहते हैं, तो वे इसका उपयोग कर सकते हैं। जब बुद्ध तुमसे बात करते है तो उन्हें इसका उपयोग करना ही होगा, क्योंकि वाणी की कोई संभावना नहीं है मन के बिना। मन का उपयोग करना ही होगा। तुम बुद्ध के पास जाते हो और वे तुम्हें पहचान जाते हैं। पहचान जाते हैं कि तुम उनके पास पहले गये हो। इसके लिए मन का उपयोग उन्हें करना होता है। बिना मन के कोई पहचान नहीं होती। बिना मन के कोई स्मृति नहीं होती। लेकिन वे मन का उपयोग मात्र करते हैं, यह ध्यान रहे; यही अन्तर है। तुम मन के दवारा इस्तेमाल किये जा रहे हो। जब भी वे इसका उपयोग करना चाहते हैं, वे इसका उपयोग करते है। जब कभी वे इसका उपयोग नहीं करना चाहते, वे इसका उपयोग नहीं करते। यह निश्चेष्ट उपकरण है; मन की उनके ऊपर कोई पकड़ नहीं। बुद्ध दर्पण की तरह बने रहते है। यदि तुम दर्पण के सामने आते हो, दर्पण में तुम्हारी छाया पड़ती है। फिर तुम आगे बढ़ जाते हो, वह प्रतिबिम्ब चला जाता है, और दर्पण खाली होता है। लेकिन तुम दर्पण जैसे नहीं हो। तुम किसी को देखते हो,वह आदमी चला जाता है, पर उसके बारे में तुम्हारा सोचना चलता रहता है; प्रतिबिंब बना रहता है। तुम उसके बारे में सोचते चले जाते हो। यदि तुम रुकना भी चाहो, तो भी मन सुनेगा नहीं। मन पर स्वामित्व बनाना योग है। और जब पतंजलि कहते है 'मन की समाप्ति', तो उनका अर्थ है-मालिक के स्वप्न में मन की समाप्ति। मन का मालिक हो जाना समाप्त हो जाता है। तब वह सचेष्ट नहीं रहता। तब वह एक निश्रेष्ट उपकरण होता है। तम आदेश देते हो और वह कार्य करता है। तम आदेश नहीं देते वह स्थिर बना रहता है। वह प्रतीक्षा भर कर रहा है। वह स्वयं की बलपूर्वक घोषणा नहीं कर सकता। वह दावा खो गया है; आक्रामकता खो गयी है। मन तुम्हें नियंत्रित करने का प्रयत्न नही करेगा। अभी स्थिति उल्टी है। तुम मालिक कैसे बन सकते हो? तुम मन को उसके स्थान पर कैसे रख सकते हो, जहां तुम इसका उपयोग कर सकते हो और जहां, यदि तुम इसका उपयोग नहीं करना चाहते, तुम इसे एक ओर रख चुप बने रह सकते हो? मन के इस सारे रचनातंत्र को समझना होगा। अब हम सूत्र में प्रवेश करेंगे। 'मन की वृत्तियां पांच हैं। वे क्लेश के स्रोत भी हो सकती हैं और अक्लेश के भी।'
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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