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________________ बुद्ध का मन समाप्त हो गया है, लेकिन बुद्ध अपनी समग्रता में उपस्थित हैं। पागल आदमी का मन समाप्त हो गया है,और वह स्वयं पूरी तरह अनुपस्थित हो गया है। ये दो छोर हैं। यदि तुम और तुम्हारा मन दोनों साथ बने रहते हैं, तब तुम दुख में रहोगे। या तो तुम्हें विलीन होना होगा या मन को विलीन होना होगा। यदि मन मिट जाता है, तब तुम सत्य को उपलब्ध करते हो। यदि तुम मिट जाते हो, अनुपस्थित हो जाते हो, तब तुम विक्षिप्तता को पाते हो। और यही संघर्ष है. कौन मिटने वाला है? तुम्हें मिटना है या मन को? यही है दवंदव-सारे संघर्ष की जड़। पतंजलि के ये सूत्र तुम्हें एक-एक कदम मन की समझ तक ले जायेंगे क्या है यह; कितने प्रकार के रूप यह ले सकता है; किस प्रकार की वृत्तियां इसमें चली आती हैं; तुम कैसे इसका उपयोग कर सकते हो और कैसे तुम इसके पार जा सकते हो। और ध्यान रहे, तुम्हारे पास अभी और कुछ भी नहीं है, केवल मन है। तुम्हें इसका ही उपयोग करना है। यदि तुम इसका गलत उपयोग करते हो तो तुम अधिक से अधिक दुख में गिरते चले जाओगे। तुम दुख में हो, क्योंकि बहुत जन्मों से तुमने अपने मन का उपयोग गलत ढंग से किया है। मन मालिक बन गया है और तुम दास मात्र हो; एक परछाईं, जो मन के पीछे चल रही है। तुम मन से कह नहीं सकते, 'रुको।' तुम अपने मन को आशा नहीं दे सकते। तुम्हारा मन आशा दिये चला जाता है और तुम्हें उसके पीछे चलना पड़ता है। तुम्हारी अंतस सत्ता एक परछाईं बन गयी है, एक दास। और मन का उपकरण मालिक हो गया है। मन कुछ और नहीं, केवल एक उपकरण है। यह तुम्हारे हाथों और पांवों की तरह ही है। जब म अपने पांवों और हाथों को कुछ करने की आशा देते हो, तो वे गति करते हैं। जब तुम कहते हो, 'रुको', वे रुक जाते हैं। तुम मालिक हो। यदि मैं अपना हाथ हिलाना चाहता हूं तो मैं इसे हिलाता हूं। यदि मै इसे नहीं हिलाना चाहता, तो मैं इसे नहीं हिलाता। हाथ मझसे नहीं कह सकता, 'चाहे कछ करो तुम, अब मैं हिलूंगा; मैं नहीं सुनने वाला तुम्हारी। और यदि मेरे बावजूद मेरा हाथ हिलना शुरू कर दे,तब शरीर में अव्यवस्था मच जायेगी। लेकिन ऐसा ही घटित हो गया है मन के साथ। तुम नहीं सोचना चाहते, पर मन सोचता चला जाता है। तुम सोना चाहते हो। तुम अपने बिस्तर पर लेट कर करवटें बदलते रहते हो। तुम सो जाना चाहते हो, लेकिन मन चलता रहता है। मन कहता है 'नहीं, मुझे कुछ सोचना ही है। तुम मन से कहते चले जाते हो, 'रुको', लेकिन यह कभी तुम्हारी नहीं सुनता। तुम कुछ नहीं कर सकते। मन भी एक उपकरण है, लेकिन तुमने इसे बहुत अधिकार दे दिया है। यह अधिनायक बन गया है। और यदि इसे तुम इसके ठीक स्थान पर रखने का प्रयत्न करो तो यह बड़ा संघर्ष करेगा।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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