SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है, तब कामवासना तुम्हारे चारों ओर पीछा करती एक छाया बन जाती है। जब तुम्हारी समग्र ऊर्जा प्रयुक्त हो जाती है, कामवासना तिरोहित हो जाती है। और वह है अवस्था ब्रह्मचर्य की, वीर्य की, तुम्हारी सारी अंतर्निहित ऊर्जा के विकसित होने की। श्रद्धा, वीर्य (प्रयास), स्मृति, समाधि (एकाग्रता) और प्रज्ञा विवेक...। श्रद्धा। वीर्य-तुम्हारी समग्र जीव-ऊर्जा, तुम्हारी समग्र प्रतिबद्धता। और प्रयत्न। स्मृति-स्व-स्मरण। और समाधि। इस शब्द 'समाधि' का अर्थ है, मन की वह अवस्था जहां कोई समस्या अस्तित्व नहीं रखती। यह शब्द आया है समाधान से। यह मन की वह अवस्था है, जहां तुम नितांत स्वस्थ अनुभव करते हो, जहां कोई समस्या नहीं होती, कोई प्रश्न नहीं। यह मन की एक प्रश्नशुन्य और समस्याशुन्य अवस्था होती है। यह कोई एकाग्रता नहीं। एकाग्रता तो मात्र एक गुणवत्ता है, जो उस मन में चली आती है, जो समस्यारहित होता है। अनुवाद करने की यही कठिनाई है। मन की इस अवस्था का हिस्सा है एकाग्रता। यह तो बस घटती है। उस बच्चे को देखो जो अपने खेल में निमग्न है;उसकी एकाग्रता प्रयासरहित है। वह अपने खेल पर एकाग्र नहीं हो रहा है। एकाग्रता सह–परिणाम है। वह खेल में इतना अधिक तल्लीन है कि एकाग्रता घटती है। अगर तुम किसी चीज पर जानबूझकर एकाग्र होते हो तो प्रयास होता है। तब तनाव होता है। तब तुम थक जाओगे। समाधि स्वत: घटती है, सहजतापूर्वक, अगर तुम तन्मय होते हो, डूबे हुए होते हो। अगर तुम मुझे सुन रहे हो, यह समाधि है। अगर तुम मुझे समग्रतापूर्वक सुनते हो, तो किसी दूसरे ध्यान की जरूरत नहीं। यह बात एक एकाग्रता बन जाती है। ऐसा नहीं है कि तुम एकाग्र होते हो। यदि तुम प्रेमपूर्वक सुनते हो, एकाग्रता पीछे चली आती है। असंप्रज्ञात समाधि में, जब श्रद्धा संपूर्ण होती है, जब प्रयास संपूर्ण होता है, जब स्मरण गहरा होता है, समाधि घटती है। जो कुछ भी तुम करते हो, तुम संपूर्ण एकाग्रता सहित करते हो-एकाग्र होने के प्रयास के बिना। और यदि एकाग्रता को प्रयास की आवश्यकता होती है तो यह असुंदर है। यह बात तुम्हें रोग की तरह ग्रस्ती रहेगी; तुम इसके द्वारा नष्ट होओगे। एकाग्रता को एक परिणाम की भांति होना चाहिए। तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो, और मात्र उसके साथ होने से तुम एकाग्र हो जाते हो। ध्यान रखना, किसी चीज पर एकाग्र कभी न होना। बल्कि गहराई से सुनना, समग्रता से सुनना और तुम्हारे पास एकाग्रता स्वयं चली आयेगी। फिर होता है विवेक-प्रज्ञा। प्रज्ञा विवेक नहीं है; विवेक केवल एक हिस्सा है प्रज्ञा का। वस्तुत: प्रज्ञा का अर्थ है-एक बोधपूर्ण जागरूकता। बुद्ध ने कहा है कि ध्यान की लौ ऊंची प्रज्वलित होती है, तो उस अग्रि शिखा को घेरने वाला प्रकाश प्रज्ञा है। भीतर है समाधि, और तुम्हारे चारों ओर एक प्रकाश, एक आभा पीछे आने लगती है। तुम्हारे प्रत्येक कार्य में तुम प्रज्ञावान और विवेकपूर्ण होते हो। यह ऐसा नहीं है कि तुम विवेकपूर्ण होने की कोशिश कर रहे हो। यह तो बस घटता है क्योंकि तुम
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy