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________________ इतनी अधिक समग्रता से जागरूक होते हो। जो कुछ तुम करते हो विवेकपूर्ण होता है। ऐसा नहीं है कि तुम निरंतर सोच रहे हो सही काम करने की बात। वह व्यक्ति जो लगातार सोच रहा है सही काम करने की बात, वह तो कुछ कर ही न पायेगा। वह गलत भी न कर पायेगा क्योंकि यह बात इतना तनाव बन जायेगी उसके मन पर। और क्या सही है और क्या गलत है? तुम कैसे निर्णय ले सकते हो? प्रज्ञावान व्यक्ति चुनता नहीं। वह मात्र अनुभव करता है। वह तो अपनी जागरूकता सब ओर फेंकता है, और उसके प्रकाश में वह आगे बढ़ता है। जहां-कहीं वह बढ़ता है, सही है। सही बात चीजों से संबंधित नहीं है; यह तुमसे संबंधित है-वह जो कार्य कर रहा है, उससे। ऐसा नहीं है कि बुद्ध सही बातें करते थे-नहीं। जो कुछ वे करते, वह सही होता। विवेक तो अपर्याप्त शब्द है। प्रज्ञावान व्यक्ति के पास विवेक होता ही है। वह उसके बारे में सोचता नहीं है; यह उसके लिए सहज है। यदि तुम इस कमरे से बाहर जाना चाहते हो, तो तुम बस दरवाजे से बाहर चले जाते हो। तुम टटोलते-ढूंढते नहीं। तुम पहले दीवार के पास नहीं चले जाते रास्ता खोजने को। तुम तो बाहर ही चले जाते हो। तुम सोचते भी नहीं कि यह दरवाजा है। लेकिन जब अंधे आदमी को बाहर जाना होता है, तो वह पूछता है, 'कहां है दरवाजा?' और फिर इसके बाद वह इसे छूने की कोशिश भी करता है। वह अपनी की लिये बहुत जगह दस्तक देगा, वह टटोलेगा, ढूंढेगा। और अपने मन में वह निरंतर सोचेगा, 'यह द्वार है या दीवार? मैं सही जा रहा हूं या गलत?' और जब वह द्वार तक आ पहुंचेगा, तब वह सोचेगा, 'हां, अब यही है द्वार!' यह सब घटता है क्योंकि वह अंधा है। तुम्हें चुनाव करना होता है क्योंकि तुम अंधे होते हो। तुम्हें सोचना पड़ता है क्योंकि तुम अंधे हो। तुम्हें अनुशासन और नैतिकता में रहना होता है क्योंकि तुम अंधे हो। जब समझ खिलती होती है, जब ज्योति वहां होती है, तुम मात्र देखते हो और हर चीज स्पष्ट होती है; जब तुम्हारे पास आंतरिक स्पष्टता होती है, तब हर चीज स्पष्ट होती है, तुम संवेदनशील बन जाते हो। जो कुछ तुम करते हो, सही ही होता है। ऐसा नहीं है कि यह सही है और इसलिए तुम इसे करते हो। तुम इसे समझ सहित करते हो, और यह सही तो श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा। दूसरे, जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं, इसे उपलब्ध करते है श्रद्धा,असीम ऊर्जा, प्रयास, समग्र आत्म-स्मरण, समस्याशून्य मन और विवेक की अग्रि शिखा के द्वारा। आज इतना ही
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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