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________________ वे मन को गीरा देने के लिए नहीं कहते; जैसा कि झेन गुरु कहते हैं। वे तो कहते हैं यह असंभव है। और अगर तुम ऐसा कहते हो तो तुम नासमझी की बात कह रहे हो। तुम सत्य ही कह रहे हो, पर यह संभव नहीं है क्योंकि एक अशुद्ध मन बोझिल होता है। किसी पत्थर की भांति वह बोझ झूलता रहता है। और एक अशुद्ध मन में इच्छाएं होती हैं-लाखों इच्छाएं जो अधूरी हैं,जो पूरी होने को ललकती रहती हैं, पूरी होने की मांग करती हैं। इसमें लाखों विचार हैं, जो अपूर्ण हैं। कैसे गिरा सकते हो तुम इसे? अपूर्ण सदा संपूर्ण होने की चेष्टा करता है। ध्यान रखना, पतंजलि कहते हैं कि जब कोई चीज संपूर्ण होती है केवल तभी तुम उसे गिरा सकते हो। तुमने ध्यान दिया? अगर तुम चित्रकार हो और तुम चित्र बना रहे हो, तो जब तक चित्र पूरा नहीं हो जाता, तुम उसे भूल नहीं सकते; वह बना रहता है, तुम्हारे पीछे लगा रहता है। तुम ठीक से सो नहीं सकते; वह वहीं डटा है। मन में इसकी अंतर्धारा है। यह सक्रिय रहती है और संपूर्ण होने की मांग करती है। एक बार यह पूरी हो जाती है, तो बात खत्म हो गयी। तुम इसे भूल सकते हो। __ मन की वृत्ति है संपूर्णता की ओर जाने की। मन पूर्णतावादी है, इसलिए जो कुछ अपूर्ण रहता है वह मन पर एक तनाव हो जाता है। पतंजलि कहते हैं कि तुम सोचने को नहीं गिरा सकते जब तक कि सोचना इतना संपूर्ण न हो जाये कि अब इसके बारे में करने–सोचने को कुछ रहे ही नहीं। तब तुम इसे सरलता से गिरा सकते हो और भूल सकते हो। यह झेन से, हेराक्लत् से पूरी तरह विपरीत मार्ग है। प्रथम समाधि, जो केवल नाममात्र की समाधि है, वह है, संप्रज्ञात समाधि-सूक्ष्म और शुद्ध हुए मन वाली समाधि। द्वितीय समाधि है असंप्रशांत समाधि-अ-मन की समाधि। किंतु पतंजलि कहते हैं कि जब मन तिरोहित हो जाता है, जब कोई विचार नहीं बच रहते, फिर भी अतीत के सूक्ष्म बीज अचेतन में संचित रहते हैं। चेतन मन दो में बंटा हुआ है। प्रथम : संप्रज्ञात-शुद्ध हुई अवस्था का चित्त बिलकुल शोधित मक्खन जैसा। इसका एक अपना ही सौदर्य है, लेकिन यह मन मौजूद तो है। और चाहे कितना ही सुंदर हो, मन अशुद्ध है, मन कुरूप है। कितना ही शुद्ध और शांत हो जाये मन, लेकिन मन का होना मात्र अशुद्धि है। तुम विष को शुद्ध नहीं कर सकते। वह विष ही बना रहता है। उल्टे, जितना ज्यादा तुम इसे शुद्ध करते हो, उतना ज्यादा यह विषमय बनता जाता है। हो सकता है यह बहुतबहुत सुंदर लगता हो। इसके अपने रंग, अपनी रंगतें हो सकती हैं,? लेकिन यह फिर भी अशुदध ही होता है। पहले तुम इसे शुद्ध करो; फिर तुम गिरा दो। लेकिन तो भी यात्रा पूरी नहीं हुई है क्योंकि यह सब चेतन मन में है। अचेतन का क्या करोगे तुम? चेतन मन की तहों के एकदम पीछे ही अचेतन का फैला हुआ महादेश है। तुम्हारे सारे पिछले जन्मों के बीज अचेतन में रहते हैं।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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