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________________ तो पतंजलि अचेतन को दो में बांट देते हैं। वे सबीज समाधि को कहते है-वह समाधि, जिसमें अचेतन मौजूद है और चेतन रूप से मन गिरा दिया गया है। यह समाधि है बीजसहित- 'सबीज'। जब वे बीज भी जल चुके हों, तो तुम उपलब्ध होते हो संपूर्ण-निर्बीज समाधि को, बीजरहित समाधि को। तो चेतन दो चरणों में बंटा है और फिर अचेतन दो चरणों में बंटा है। और जब निर्बीज समाधि घटती है-वह परमानंद-जब कोई बीज तुम्हारे भीतर नहीं होते अंकुरित होने के लिए या विकसित होने के लिए जो कि तुम्हें अस्तित्व में आगे की यात्राओं पर ले चलें, तो तुम तिरोहित हो जाते हो। इन सूत्रों में वे कहते हैं, 'संप्रज्ञात समाधि वह समाधि है जो वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता के भाव से युक्त होती है।' लेकिन यह पहला चरण है। और बहुत लोग भटक जाते हैं। वे सोचते हैं कि यही अंतिम है क्योंकि यह इतनी शुद्ध है। तुम इतना पुलकित अनुभव करते हो, इतना आनंदित, कि तुम सोचते हो कि अब पाने को और कुछ नहीं है। अगर तुम पतंजलि से पूछो, तो वे कहेंगे कि झेन की सतोरी तो पहली समाधि ही है। वह अंतिम, परम नहीं है। परम सत्य तो अभी बहुत दूर है। जो शब्द वे प्रयोग करते हैं उनका ठीक से अनुवाद नहीं किया जा सकता क्योंकि संस्कृत सर्वाधिक संपूर्ण भाषा है; कोई भाषा इसके निकट भी नहीं आ सकती। अत: मुझे तुम्हें सुस्पष्ट करना होगा। जो शब्द प्रयुक्त हुआ है वह है 'वितर्क' : अंग्रेजी में तो इसका अनुवाद रीजनिंग किया जाता है। यह तो एक दरिद्र अन हआ। वितर्क' को समझ लेना है। लाजिक को कहा जाता है तर्क, और पतंजलि कहते हैं तर्क तीन प्रकार के होते हैं। एक को वे कहते हैं 'कुतर्क' -ऐसा तर्क, जो निषेध की ओर उन्मुख हो जाता है, सदैव नकारात्मक ढंग से सोचता है; जिसमें कि तुम अस्वीकार कर रहे हो, संदेह कर रहे हो, विनाशवादी होते हो। चाहे तुम कुछ भी कहो, वह आदमी जो 'कुतर्क' में जीता है-निषेधात्मक तर्क में सदा सोचता है. इसे अस्वीकार कैसे करें.न कैसे कहें। वह निषेध को खोजता है। वह तो हमेशा शिकायत कर रहा है, खीज रहा है। वह सदा अनुभव करता है कि कहीं कुछ गलत है-सदा ही। तुम उसे ठीक नहीं कर सकते क्योंकि यही है उसका देखने का ढंग। अगर तुम उसे सूरज देखने के लिए कहते हो, तो वह सूरज को नहीं देखेगा। वह देखेगा सूरज के धब्बों को; वह हमेशा चीजों के ज्यादा अंधेरे पहलू को देखगा-यह है'कुतर्क', गलत तर्क। लेकिन यह तर्क की भांति जान पड़ता है। अंततः यह नास्तिकता की ओर ले जाता है। तब तुम ईश्वर को अस्वीकार करते हो, क्योंकि अगर तुम शुभ को देख नहीं सकते, अगर तुम जीवन के अधिक प्रकाशमय पक्ष को नहीं देख सकते, तो तुम ईश्वर को कैसे अनुभव कर सकते हो? तब तुम केवल इनकार करते हो। तब पूरा अस्तित्व अंधेरा हो जाता है। तब हर चीज गलत होती है, और तुम अपने चारों ओर नरक निर्मित
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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