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________________ अभ्यास एक तरह का संस्कारीकरण है शारीरिक और मानसिक स्तर पर और इसी के द्वारा समाज व्यक्ति को अपना गुलाम बना लेता है। उस अवस्था में पतंजलि का अभ्यास मुक्ति का साधन कैसे हो सकता है?' समाज तुम्हें संस्कारित करता है, तुम्हें एक गुलाम, एक आज्ञाकारी सदस्य बना देने के लिए। इसलिए प्रश्र तर्कसंगत लगता है-मन को सतत संस्कारित करना किस तरह तुम्हें मुक्त बना सकता है? लेकिन प्रश्र तर्कसंगत लगता ही है क्योंकि तुम दो प्रकार के संस्कारों को उलझा रहे हो। उदाहरण के तौर पर तुम मेरे पास आये हो, तुमने दूर की यात्रा की है। जब तुम वापस जाते हो, तुम फिर उसी राह की यात्रा करोगे। मन पूछ सकता है, जो राह मुझे यहां लायी है वही राह मुझे वापस कैसे ले जा सकती है? राह वही होगी, लेकिन तुम्हारी दिशा भिन्न होगी-बिलकुल विपरीत। जब तुम मेरी ओर आ रहे थे, तुम मेरी ओर मुख धिये हुए थे; लेकिन जब तुम वापस जाते हो, तब तुम विपरीत दिशा की ओर मुख किये हुए होओगे। लेकिन रास्ता वही होगा। समाज तुम्हें संस्कारों से भरता है, तुम्हें एक आज्ञाकारी सदस्य, एक गुलाम बनाने के लिए। यह तो बस एक रास्ता है। उसी रास्ते पर यात्रा करनी होगी तुम्हें मुक्त बनने के लिए केवल दिशा विपरीत होगी। वही विधि प्रयोग करनी होती है तुम्हें अ-संस्कारित करने के लिए। मुझे एक कथा याद है-एक बार बुद्ध अपने भिक्षुओं के पास आये, वे प्रवचन देने जा रहे थे। वे वृक्ष के नीचे बैठे थे अपने हाथ में एक रूमाल पक्के हुए। उन्होंने रूमाल की ओर देखा। सारी सभा ने भी देखा जानने के लिए कि वे क्या कर रहे थे। फिर उन्होंने पांच गांठें रूमाल में बाधी और उन्होंने पूछा,' अब मुझे क्या करना चाहिए इस रूमाल की गांठें खोलने के लिए?क्या करना चाहिए अब मुझे?' फिर उन्होंने दूसरा प्रश्र पूछा- 'क्या रूमाल वैसा ही है जब इसमें कोई गांठें न थीं, या यह भिन्न है?' ___ एक भिक्षु बोला, 'एक अर्थ में यह वही है क्योंकि रूमाल का स्वरूप नहीं बदला है। गांठों के साथ भी यह वैसा ही है-वही रूमाल। अंतर्निहित स्वरूप वही है। लेकिन एक अर्थ में यह बदल गया है क्योंकि कुछ नया घटित हुआ है। गांठे पहले नहीं थीं और अब गांठें वहां हैं। इसलिए ऊपरी तौर पर यह बदल गया है, लेकिन गहराई में यह वही है।' बुद्ध ने कहा, 'यही है मुनष्य के मन की स्थिति। गहरे तल पर वह खुली हुई रहती है। स्वरूप वही रहता है। जब तुम प्रबुद्ध हो जाते हो, बुद्ध-पुरुष, तब तुम्हारा कोई भिन्न चैतन्य नहीं
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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