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________________ होगा। स्वरूप वही बना रहेगा। अंतर केवल यही होता है कि अभी तुम गांठों वाले रुमाल हो, तुम्हारे चैतन्य की कुछ गांठें हैं। दूसरा प्रश्र बुद्ध ने पूछा, वह था, 'मुझे क्या करना चाहिए रूमाल की गांठ खोलने के लिए? एं एक दूसरे भिक्षु ने उत्तर दिया, 'जब तक कि हम जान न लें कि आपने उसमें गांठ बांधने के लिए क्या किया है, हम कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि विपरीत प्रक्रिया प्रयोग में लानी होगी। जिस ढंग से आपने इसमें गांठ बांधी है पहले उसे जानना है, क्योंकि विपरीत क्रम फिर से उसकी गांठ खोल देने वाला ढंग होगा। 'बुद्ध ने कहा, 'यह दूसरी चीज है। तुम इस बंधन में कैसे आ गये इसे समझ लेना है। तुम अपने बंधन में संस्कारित कैसे हो गये हो, इसे समझना है क्योंकि वही होगी प्रक्रिया, विपरीत क्रम में, तुम्हें संस्कारशून्य करने के लिए।" यदि आसक्ति संस्कारग्रस्त करने वाला कारण है, तब अनासक्ति सहज करने वाला कारण बन जायेगा। यदि अपेक्षाएं तुम्हें दुख की ओर ले जाती हैं, तब अनपेक्षा तुम्हें गैर-दुख में ले जायेगी । अगर क्रोध तुम्हारे भीतर नरक निर्मित करता है, तो करुणा स्वर्ग निर्मित करेगी। दुख की जो भी प्रक्रिया है उससे सुख की प्रक्रिया विपरीत होगी। असंस्कारित होने का अर्थ है कि मनुष्य चेतना की सारी गांठों भरी स्थिति जैसी वह है, तुम्हें समझनी है। योग की यह सारी प्रक्रिया जटिल गांठों को समझने के और फिर उन गांठों को खोलने के, उन्हें सहज करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती । ध्यान रहे, यह पुनः संस्कारीकरण नहीं है। यह केवल संस्कारीकरण का अभाव है, यह नकारात्मक है। अगर यह पुनः संस्कारीकरण है, तब तुम फिर गुलाम बन जाओगे एक नयी जेल में एक नये तरह के गुलाम । अतः यह अंतर याद रखना है। यह संस्कारों का अभाव है, पुनः संस्कारित करना नहीं । । इसके कारण बहुत समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। कृष्णमूर्ति कहे जाते है कि यदि तुम कुछ करते हो, तो वह पुन: संस्कार बन जायेगा, इसलिए कुछ करो नहीं। यदि तुम कुछ करते हो, तो वह नया संस्कार बन जायेगा। हो सकता है तुम बेहतर गुलाम हो जाओ, लेकिन तुम गुलाम बने रहोगे।' उन्हें सुनते हुए बहुत लोगों ने सारे प्रयत्न छोड़ दिये हैं। लेकिन यह बात उन्हें मुक्त नहीं बना देती । वे मुक्त नहीं हु हैं अभी तक। संस्कार वहां हैं। वे संस्कार विहीन नहीं हो रहे । कृष्णमूर्ति को सुनते हुए वे बंद ही हो गये हैं। वे नव-संस्कारित नहीं हो रहे। लेकिन संस्कारों से मुक्त भी नहीं हो रहे वे गुलाम रहते हैं। तो मैं नव-संस्कार के लिए नहीं कहता, न ही पतंजलि नव-संस्कार की कहते हैं। मैं संस्कार के अभाव की बात कहता हूं और पतंजलि भी संस्कार के अभाव की बात कहते हैं। जरा मन को समझना। जो भी है बीमारी, बीमारी को समझना, उसका निदान करना और विपरीत क्रम में गति करना ।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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