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________________ अभी तक तो तुम एक अव्यवस्था, एक भीड़ की तरह जिये। योग का मतलब है कि अब तुम्हें लयबद्धता बनना होगा,तुम्हें 'एक' बनना होगा। एक जुट होने की आवश्यकता है, केंद्रीकरण की आवश्यकता है। और जब तक तुम केंद्र नहीं पा लेते, जो कुछ भी तुम करते हो वह व्यर्थ है। जीवन और समय का बेकार विनष्ट होना है। पहली आवश्यकता है केंद्रबिंद। और जिसके पास यह केंद्र है वही व्यक्ति आनंदित हो सकता है। हर व्यक्ति आनंद की मांग करता है। लेकिन तुम मांग नहीं कर सकते। इसे तो तुम्हें अर्जित करना होगा। अंतस की आनंद अवस्था के लिए सब लालायित रहते हैं, लेकिन केवल केंद्रस्थ व्यक्ति ही आनंदित हो सकता है। भीड़ तो कैसे आनंदमय हो सकती है। भीड़ का तो कोई व्यक्तित्व नहीं है। वहां कोई आत्मा नहीं, इसलिए आनंदमय होगा तो कौन? आनन्द का अर्थ है, एक परम मौन। और ऐसा मौन तभी संभव है जब भीतर लयबद्धता हो, जब सारे बेमेल टुकड़ो का मेल हो जाये, वे एक बन जायें जब भीड़ न रहे बल्कि केवल एक ही हो। जब भीतर घर में कोई न हो और तुम अकेले हो, तब तुम आनन्द से भर जाओगे। पर अभी तो हर एक तुम्हारे घर में है। तुम वहाँ हो नहीं, केवल मेहमान ही वहाँ है। मेंजबान तो सदा ही अनुपस्थित है। और केवल मेजबान आनन्द मय हो सकता है। इस केंद्रीयकरण की प्रक्रिया को ही पतंजलि ने अनुशासन कहा है-अनुशासनम् डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बहुत सुंदर है। यह उसी जड़, उसी उद्गम से आया है जहां से डिसाइपल शब्द आया। अनुशासन काम तलब है सीखने की क्षमता, जानने की क्षमता। किन्तु तब तक तुम नहीं जान सकते, नहीं सीख सकते, जब तक तुम स्व-केद्रित न हो जाओ। एक बार एक आदमी बुद्ध के पास आया। वह आदमी अवश्य कोई समाज-सुधारक रहा होगा, कोई क्रांतिकारी। उसने बुद्ध से कहा, 'संसार बहुत दुःख में है; आपकी इस बात से मैं सहमत हूं।' बुद्ध ने यह कभी कहा ही नहीं कि संसार दुख में है। बुद्ध ने कहा, 'तुम दुःख हो, संसार नहीं। जीवन दुःख है, संसार नहीं। मन दुःख है, संसार नही।' लेकिन क्रांतिकारी ने कहा, 'संसार बडी तकलीफ में है। मैं आपसे सहमत हूं। अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूं? बड़ी गहरी करुणा है मुझ में और मैं मानवता की सेवा करना चाहता है।' सेवा करना जरूर उसका आदर्श रहा होगा। बुद्ध ने उसकी तरफ देखा और वे मौन ही रहे। बुद्ध के शिष्य आनन्द ने कहा, यह आदमी सच्चा जान पड़ता है। इसे राह दिखाइए। आप चुप क्यों हैं? तब बुद्ध ने उस क्रांतिकारी से कहा, 'तुम संसार की सेवा करना चाहते हो, लेकिन तुम हो कहा? मैं तुम्हारे भीतर किसी को नही देख रहा। मैं देखता हूं और वहाँ कोई नहीं है। तुम्हारा कोई केन्द्र नहीं। और जब तक तुम्हारे भीतर एक ठोस केन्द्र नहीं बनता तब तक तुम जो भी करोगे उससे और अनिष्ट होगा। तुम्हारे सारे समाज-सुधारक, क्रांतिकारी, तुम्हारे नेता, वे सब अनिष्टकारी और उपद्रव मचाने वाले हैं। दुनिया बेहतर होती यदि नेता न होते। लेकिन वे आदत से मजबूर हैं। वे यही महसूस करते हैं कि उन्हें कुछ करना चाहिए क्योंकि संसार बड़े दुख में है। और
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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