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________________ मे न जाने कितना श्रम चुरा रहे हैं और दूसरे के लिए पैरासाइट - परोप# जीवी बन गये है । हमारी सुख-सुविधा के लिए कोई और अपना जीवन लगा रहा है । यह नहीं दिखायी देने वाली चोरी है । इससे मनुष्य नही बचेगा तो टूटेगा और धीरे-धीरे हिंसा की ओर कदम बढायेगा । इसका व्यावहारिक रूप 'श्रम की आराधना' है। श्रम को हमने वर्तमान सामाजिक जीवन मे बहुत ऊप्रतिष्ठित किया है। श्रम की प्रतिष्ठा जिस तरह बढे Fort की पहल करना ही अचौर्य की साधना है। हम खुद अपने जीवन में श्रम को अधिक से अधिक दाखिल करे और जो बिना पेरासाइट बने अपना जीवन जी रहा है उसे प्रतिष्ठा दे, तभी बात बनेगी । यह सीधे-सीधे कष्ट उठाने की बात है, पसीना बहाने की बात है । 'शील' को भी बहुत गहरे उतरना है । उसका सबध महज सेक्स से नही है । हमारे भीतर के 'सयम' से है । रोज-रोज बल्कि हर पल, हर क्षण मनुष्य के मन मे जो तृष्णा, अहकार, लिप्साएँ और अधिक-अधिक पा लेने की लालसा उगती रहती है उस पर नियंत्रण रखने की बात है । अध्यात्म के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य की जो परिभाषा हमारे धर्म ग्रंथो मे हुई है उनमें यह सब सम्मिलित है । परन्तु साधारणत हमारा ध्यान उस पर नही गया है और हमारे दैनिक जीवन मे शील गायब है । उपभोग की कोई यदा ही है । वल्पि इस शताब्दी में हर दिशा मे उपभोग ने चौकडी भरी है । 'उच्च जीवर स्तर के लिए हमारी कोशिश जारी है और मनुष्य ने जितना पा लिया है उससे उसे असतोष ही है। शील यदि मनुष्य के धर्म का एक पहलू है तो वह सयम के माध्यम से हाथ आयेगा । इसका अभ्यास दैनिक जीव मे करेगे तभी बात बनेगी। इसमे समग्र दृष्टि लानी होगी । हम सबका अभ्यास-क्षेत्र अलग-अलग होगा, इसमे कोई सदेह नहीं है । हर तरह के उपभोग पर अकुश की जरूरत है, यह स्वीकार ले और अपना अकुश स्य ढूंढे तो मार्ग निकल आयेगा । 'परिग्रह' अहिंसा धर्म का रडार ( दिशा दर्शक यत्र ) है । इसे ही महावीर +
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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