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________________ मनुष्य ने तोड दिया है। जिसे उपलब्ध है वह भी सग्रह में लगा है और जिसे उपलब्ध नहीं है वह भी संग्रह की तरफ उन्मुख है। महावीर के इस क्रांतिकारी विचार को हमने महाव्रतो मे तो शरीक कर लिया, लेकिन जीवन से उसे निकाल फेंका है। धन और वस्तु के बाहुल्य को हमने सर्वाधिक प्रतिष्ठा दी है और हर समय मनुष्य अपनी-अपनी जगह इसी दौड़ में लग गया है कि वह जोड ले, ताकि प्रतिष्ठित हो जाए । अपरिग्रह की जड 'समाधान' में है, लेकिन समाधान वाला तत्व दाखिल नही हो रहा है । बहुत-बहुत जोड कर भी चित्त में बेचैनी है । समाधान एक स्वीकारात्मक पाजिटिव्ह तत्व हैं । हरेक को अपना समाधान ढूँढना होगा और उसका अभ्यास करना होगा | कबीर ने कहा कि- 'साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भखा जाए ।' द और तत्व मनुष्य के धर्म मे जुड गया है। वह है 'अनेकान्त'यह मी । हम सब अपने सत्य दर्शन के दुराग्रही न बने इसलिए 'भी' तत्व की जरूरत है | इससे मनुष्य के हाथ उदारता लगी है । वह सहिष्णु बना है । इस क्षेत्र में भी हम बहुत आगे नहीं बढ सके है । निर्भय होकर सहिष्णु बनना है । मै अपना राज्य नम्रता के साथ करूँगा, लेकिन आपके सत्य को भी साथ ही साथ समझने की कोशिश करूँगा । मनुष्य को ऊँचाई देने में यह तत्व बहुत तयक साबित हुआ है- पर रोज के जीवन मे दुराग्रह और कट्टरता की जकड में है हम | आचरण ये सब दिशाएँ है । मनुष्य ने अपना जो धर्म स्वीकारा है, उस पर चलने की पटरिया है | इन पटरियो पर चलने से हमे कोई रोकता है तो वह हमारे ही भीतर पैदा होने वाला विकार है। इसकी खोज मनुष्य कर चुका है। वह जानता है कि उसके धर्म से वह इसलिए डिगता है कि उसकी तृष्णा या लालच, उसका क्रोध, वर, अह्कार, यश-धन-सत्ता की लिप्सा, निन्दा और बाहर-भीतर की अस्वच्छता को वह रोक नहीं पाता । अब ये जीवन में ? ९१
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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