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________________ - ३७ - चित्त से चित्त का निग्रह करे, उसे दवाये, उसे सताप दे। उसके ऐसा करने से, उस भिक्षु के तृष्णा, द्वेप तथा मूढता से भरे हुए अकुशल पापमय-विचार नष्ट हो जाते है, अस्त हो जाते है। उनके नाश हो जाने से चित्त अपने आप ही स्थिर हो जाता है, गान्त हो जाता है, एकाग्र हो जाता है, समाविस्थ हो जाता है। भिक्षुओ, इसे प्रहाण-प्रयत्न कहते है। और भिक्षुओ, भावना-प्रयत्न क्या है? एक भिक्षु प्रयत्न करता है, जोर लगाता है, मन को काबू मे रखता है अ. ४ कि जो कुशल कल्याण-मय वाते उसमे नही है, वे उसमे आ जाये। वह स्मृति (=निरन्तर जागरूकता), धर्म-विचय, वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधी तथा उपेक्षा बोधि के सात अगो का अभ्यास करता है, जो कि एकान्त-वास तथा वे-राग होने से उत्पन्न होते है, निरोध मे सम्बन्धित है और उत्सर्ग की ओर ले जाने वाले है। भिक्षुओ, इसे भावना-प्रयत्न कहते है। और भिक्षुओ, अनुरक्षण-प्रयत्न क्या है? एक भिक्षु प्रयत्न करता है, जोर लगाता है, मन को काबू मे रखता है कि जो अच्छी वाते उस (के चरित्र) मे आ गई है वे नष्ट न हो, उत्तरोत्तर वढे, विपुलता को प्राप्त हो । ___ वह समाधि-निमित्तो की रक्षा करता है। भिक्षुओ, इसे अनुरक्षण- म. ७ - प्रयत्न कहते है। (वह सोचताह)-"वाहे मेरा मास-रक्त सव मूख जाये और वाकी रह जाये केवल त्वक्, नसे और हड्डियॉ, जव तक उमे जो किसी भी मनुष्य के प्रयत्न से, शक्ति से, शत्रम से प्राप्य है, प्राप्त नही कर लूंगा, तव तक चैन नही लूंगा।" . भिक्षुओ, इसे सम्यक्-प्रयत्न (=व्यायाम) कहते है।
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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