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________________ : [ ६८ ] योग असंख्य छे जिन कला, नत्र पद मुख्य ते जाणो रे । एंह तणे अवलंबने, आतम ध्यान प्रमाणो रे || वीर०१३ ढाल वारसी एहवी, चौथे खंडे पूरी रे | वाणी वाचक जस तणी, कोई रही न अधूरी रे || वीर०१४ || वीर जिनेसर उपदिसे० ॥ ॥ श्री तप पद काव्यम् ॥ बज्यं तहान्भिन्तर मेयमेयं, कषाय दुज्जेय कुकम्म मेयं । दुक्खक्खयुत्थे कयपावनासं, तवेह दाहागमयं निरासं ॥ ६ ॥ ॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्करं, जगतिजन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः शुचि मनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥६॥ मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म- जरा मृत्यु निवारणाय, श्रीतपपदे, पंचामृतं चन्दनं पुष्पं-धूपं दीपं अक्षतान् नैवेद्य - फलं वस्त्रंवासं यजामहे स्वाहा | w - स्नात्र करतां जगतगुरु शरीरे, सकल देवें विमल कलश नीरे । 'आपणा कर्ममल दूर कीधा, तेणें ते विबुध ग्रंथे प्रसिद्धा ॥ १ ॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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