SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ वृहत् पूजा संग्रह एम कही फूल चढ़ावे ।। ॥दोहा॥ दाता दीन दयाल प्रभु, देत संवत्सरी दान । दूर करे दारिद्र जग, त्रिभुवन मांहि प्रधान । (तर्ज-मरुदेवा नन्दनकी क्या छबि लागत प्यारी) जगपति जिनवरकी, क्या छवि मोहनगारी । ज० ॥ मोहत प्रभुके मोहन रूपे, निरख निरख नरनारी ॥ क्या० ॥ १॥ भोग कर्म अन्तरायकर्म कछु, क्षीण भये निरधारी। दानसंवत्सर घन जिम वरसत, पृथ्वी प्रमुदितकारी ॥ क्या० ॥२॥ नवलोकांतिक देव सबे मिल, हाजर होय सुचारी। जय जय मंगल शब्द उचारत, धर्म गहो सुखकारी ॥ क्या० ॥३॥ दान धर्म शिवमारग प्रभुजी, प्रगट कियो हितकारी । दाता दोनदयाल जगतमें, जिन सम को सुविचारी ॥ क्या० ॥४॥ इन्द्रादिक सुरसुरी नर नारी, दीक्षोत्सव अति भारी। गान दान सनमान तान करि, प्रभुगति सकल सुप्यारी |क्या०॥ ५ ॥ तजि संसार लियो शुभयोगे, संयम सत्तर प्रकारी। मनपर्यव वर ज्ञान भयो तव, विहरत परउपगारी ॥ क्या० ॥ ६॥ ॐ ह्रीं श्री ५० अ० ज० श्री दीक्षाकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥३॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy