SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | असंसारस्य ज्ञानी को नन तु=तो क्व अपि = कभी हर्ष हर्ष है च = और नत अन्वयः । विषादता शोक है शब्दार्थ | सः = वह शीतलमना शान्त मनवाला नित्यम् = सदा विदेहः इव - मुक्त की तरह् राजते = शोभायमान रहता है || भावार्थ | अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! ज्ञानी संसार से रहित है । संसार का हेतु अर्थात् कारण अज्ञान जिसमें न रहे, उसी का नाम असंसारी है और हर्षं विषादादि भी उसमें नहीं उत्पन्न होते हैं, इसी से वह शीतल हृदय है और विदेहमुक्त की तरह वह रहता है || २२ ॥ मूलम् । कुत्रापि न जिहासाऽस्ति आशा वाऽपि न कुत्रचित् । धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः ॥ २३ ॥ आत्मारामस्य पदच्छेदः । कुत्र, अपि, न, जिहासा, अस्ति, आशा, वा, अपि, न, कुत्रचित्, आत्मारामस्य, धीरस्य, शीतलाच्छतरात्मनः ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy