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________________ अन्वयः। संसारवातेन- प्रारब्ध-रूपीपवन करके अठारहवाँ प्रकरण। २९५ शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। निर्वासनः वासना-रहित निरालम्ब आलम्ब-रहित स्वच्छन्दः स्वेच्छाचारी क्षिप्तः प्रेरणा किया हुआ मुक्तबन्धनः बन्धन-रहित शुष्कपर्णवत्-सूखे पत्ते की तरह ज्ञानिनाम्ज्ञानी चेष्टते-चेष्टा करता है भावार्थ । प्रश्न-यदि ज्ञानी निर्वासनिक है, तब वह किस करके प्रेरणा किया हुआ कर्मों को करता है। उत्तर-ज्ञानी जिस हेतु करके निर्वासनिक है, उसी हेतु करके वह निरालम्ब भी है; अर्थात कर्तव्यता का जो अनुसंधान अर्थात चिन्तन है, उससे वह रहित है, और स्वच्छन्द भी है अर्थात वह राग-द्वेषादिकों के अधीन है। और बन्ध का हेतु जो अज्ञान है, उससे रहित है। जैसे सूखा पत्ता वायू करके प्रेरा हआ इधर-उधर डोलता है, वैसे ही ज्ञानी प्रारब्ध-रूपी वायु करके चलाया हुआ इधर-उधर फिरता है ।। २१ ॥ मूलम् । असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादता । स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते ॥ २२ ॥ पदच्छेदः । असंसारस्य, तु, क्व, अपि, न, हर्ष, न, विषादता, स:; शीतलमनः, नित्यम्, विदेहः, इव, राजते ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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