SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० यदा-जव' कभी पदच्छेदः । प्रवृत्तौ, वा, निवृत्तौ, वा, न, एव, धीरस्य, दुर्ग्रहः, यदा, यत्, कर्तुम्, आयाति, तत्, तिष्ठतः, सुखम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। तिष्ठतः समाधिस्थ यत्-जो कुछ कर्म धीरस्य-ज्ञानी पुरुष को कर्तुम् करने को प्रवृत्ती-प्रवृत्ति में आयाति-आ पड़ता है वा-अथवा तत्-उसको निवृत्तौ=निवृत्ति में सुखम्-सुख पूर्वक दुर्ग्रहः दुराग्रह कृत्वा-करके न एव-कभी नहीं है ॥ भावार्थ । विद्वान् को प्रवृत्ति में और निवृत्ति में कोई आग्रह अर्थात् हठ नहीं है । क्योंकि वह कर्तृत्वादि अभिमान से रहित है । यदि प्रारब्ध के वश से विद्वान् को प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करने को पड़ जावे, तब वह सुखपूर्वक उनको करता है, और असंग भी बना रहता है। क्योंकि उसको कर्तृत्वादिकों का अभिमान नहीं है ॥ २० ॥ मूलम् । निर्वासनो निरालम्बः स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः । क्षिप्तः संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥ पदच्छेदः। निर्वासनः, निरालम्बः, स्वच्छन्द ; , मुक्तबन्धनः, क्षिप्तः, संसारवातेन, चेष्टते, शुष्कपर्णवत् ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy