SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्रहवाँ प्रकरण । २५३ वह अकेला ही रहता है । इसी वास्ते संन्यासी को बहुत पुरुषों के मध्य में रहना और बहुतों को संग रखना भी मना किया है । दक्षस्मृति: त्रयी ग्रामः समाख्यात ऊर्ध्वं तु नगरायते । नगरं हि न कर्त्तव्यं ग्रामो वा मैथुनं तथा ॥ १ ॥ एतत्त्रयं तु कुर्वाणः स्वधर्माच्च्यवते यतिः । राजवार्त्तादि तेषां तु भिक्षावार्त्ता परस्परम् ॥ २ ॥ जहाँ पर तीन भिक्षु मिल करके रहें, उसका नाम ग्राम है । जहाँ पर तीन से अधिक रहें, उसका नाम नगर है । इस वास्ते भिक्षु विद्वान् नगर और ग्राम को न बनावें, और न दूसरे के साथ रहें, किन्तु अकेले ही विचरा करें । जो भिक्षु ग्राम, नगर या मिथुन को करता है अर्थात् दो, तीन और अधिकों के साथ रहता है, वह अपने धर्म से प्रच्युत हो जाता है || १ | २ ॥ सत्कारमान पूजार्थं दण्डकाषायधारणः । स संन्यासी न वक्तव्यः संन्या सी ज्ञानतत्परः ॥ १ ॥ सत्कार, मान और पूजा के अर्थ जो भिक्षु दण्ड और काषायवस्त्रों को धारण करता है, वह संन्यासी नहीं है, जो आत्मज्ञानपरायण होकर अकेला वासना रहित होकर ही रहता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है, दूसरा नहीं ॥१॥ मूलम् । न कदाचिज्जगत्यस्मिस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति । यत एकेन तेनेदं पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥ २ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy