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________________ २५२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० उसी पुरुष को आत्मज्ञान का फल प्राप्त हुआ है और उसी पुरुष को योगाभ्यास का फल भी प्राप्त हुआ है, जिसने विषयभोगों से रहित होकर अपने आपमें ही तृप्ति पाई है । वही स्वच्छ इन्द्रियोंवाला है अर्थात उसकी इन्द्रियों में विषयभोग की कामना रञ्चकमात्र नहीं है, जो नित्य अकेला विचरता है और अपने आप स्थित है। दत्तात्रेयजी ने भी कहा है। वासो बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्वयोरपि । एकाकी विचरेद्विद्वान् कुमार्या इव कङ्कणः ॥ १॥ दत्तात्रेयजी एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने गये। घर में एक कूमारी कन्या थी और कोई न था। उस कन्या ने कहा, महाराज ! आप ठहरें, मैं धान कूट और चावल निकालकर आपको देती हूँ। जब वह कन्या धान कूटने लगी तब उसके हाथ में जो काँच की चूड़ियाँ थीं, वे छन-छन शब्द करने लगीं। उनके शब्द होने से कन्या को बड़ी लज्जा आई। उसने एक-एक करके उन चुड़ियों को उतार दिया। जब एक ही चूड़ी बाकी रह गई, तब शब्द होना बंद हो गया । तब दत्तात्रेयजी ने विचार करके कहा कि जहाँ बहुत से पुरुषों का एकत्र रहना होता है, वहाँ लड़ाई-झगड़ा जरूर होता है । और जहाँ दो पुरुष इकट्ठे रहते हैं, वहाँ पर गपशप होती है, श्रवण मननादिक नहीं होते हैं । इसवास्ते विद्वान् को चाहिये कि कुमारी कन्या के कङ्कण की तरह अकेला होकर संसार में विचरे । जिस विद्वान् को जीवन्मुक्ति के सुख की लेने की इच्छा होती है,
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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