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________________ २५४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । न, कदाचित्, जगति, अस्मिन्, तत्त्वज्ञः, हन्त, खिद्यति, यतः, एकेन, तेन, इदम्, पूर्णम्, ब्रह्माण्डमण्डलम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। तत्त्वज्ञः तत्त्वज्ञानी यतः क्योंकि अस्मिन्-इस तेन एकेन-उसी एक से जगतिम्-जगत विपे इदम्य ह न कदाचित्-कभी नहीं ब्रह्माण्डमण्डलम् ब्रह्माण्ड-मण्डल खिद्यते खेद को प्राप्त होता पूर्णम्पूर्ण है हन्त यह बात ठीक है भावार्थ हे शिष्य ! इस संसार मण्डल में तत्त्व वित् ज्ञानी कभी भी खेद को प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि वह जानता है कि मुझ एक करके ही यह सारा जगत् व्याप्त हो रहा है। खेद दूसरे से होता है, सो दूसरा उसकी दृष्टि में है नहीं ।। २ ।। मूलम्। न जातु विषयः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी । सल्लकीपल्लवप्रीतमिवेभन्निम्बपल्लवाः ॥ ३ ॥ पदच्छेदः । न, जातु, विषयः, के, अपि, स्वारामम्, हर्षयन्ति, अभी, सल्लकीपल्लवप्रीतम्, इव, इभम्, निम्बपल्लवाः ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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