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________________ २२४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० मरता है। उसके धर्मों को आत्मा में मानकर तू शोच करने के योग्य नहीं है । क्योंकि वह तेरे विषे अध्यस्त है । अध्यस्त वस्तु के नाश होने से तुझ अधिष्ठान का नाश नहीं हो सकता है। प्रश्न-आपने कहा है कि आत्मा लोकान्तर को नहीं जाता किंतु लिङ्ग-शरीर ही लोकान्तर और देशान्तर को जाता है, सो विना आत्मा के लिङ्ग-शरीर का गमनागमन नहीं बन सकता है ? लिङ्ग-शरीर जड़ है उसमें सुख दुःख का भोगना भी नहीं हो सकता ? उत्तर-गमनागमन परिच्छिन्न वस्तु में होता है, व्यापक में नहीं होता है । लिंग-शरीर परिच्छिन्न है इसवास्ते इसी का गमनागमन होता है । आत्मा व्यापक है उसका गमनागमन नहीं हो सकता है, व्यापक जल से भरे हुए घट का देशान्तर में ले जाना हो सकता है, व्यापक आकाश का नहीं, क्योंकि आकाश तो सब जगह मौजद है। जहाँ पर घट जावेगा वहाँ पर आकाश का प्रतिबिम्ब उसमें पड़ेगा। वैसे ही जहाँ जहाँ लिंग-शरीर जाता है, वहाँ उसमें आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है । उस चेतन के प्रतिबिम्ब करके युक्त अन्तःकरण सुख दुःखादिकों का भोक्ता और कर्ता भी कहा जाता है। उसमें ज्ञान-शक्ति और इच्छा-शक्ति भी हो जाती है। उसी अन्तःकरण प्रतिबिम्बित चेतन का नाम ही जीव हो जाता है। जीव का लक्षण पञ्चदशीकार ने ऐसा किया है कि लिंग-शरीर, उसमें चेतन का प्रतिबिम्ब और उसका आश्रय अधिष्ठान चेतन, तीनों का नाम जीव है। माया और माया
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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