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________________ पन्द्रहवाँ प्रकरण । २२५ में प्रतिबिम्ब, और माया का अधिष्ठान चेतन तीनों का नाम ईश्वर है । जीव और ईश्वर का भेद उपाधियों करके है, वास्तव में भेद नहीं है । जैसे घटाकाश और मठाकाश का उपाधि - कृत भेद है, वैसे जीव और ईश्वर का भी उपाधिकृत भेद है, वास्तव में भेद नहीं है । उपाधियाँ कल्पित हैं अर्थात् मिथ्या हैं। चेतन नित्य है, सोई चेतन तुम्हारा रूप आप है, ऐसा जानकर तुम शोक करने के योग्य नहीं हो ॥ ९ ॥ मूलम् देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुनः । क्व वृद्धिः क्व चवा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः ॥ १० ॥ पदच्छेदः । देहः तिष्ठतु, कल्पान्तम्, गच्छतु, अद्य, एव, वा पुन: क्व, वृद्धि:, क्व, च, वा हानि:, तव, चिन्मात्ररूपिणः ।। शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । पुनः चाहे देहः-शरीर कल्पान्तम् =कल्प के अन्त तक तिष्ठतु = स्थिर रहे वाचा अद्यएव = अभी गच्छतु-नाश हो तव तुझ चिन्मात्र - रूपिण: शब्दार्थ | चैतन्य - रूपवाले का क्व = कहाँ बृद्धि: वृद्धि है च और क्व= कहाँ हानि हानि है || भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! द्रष्टा द्रव्य से पृथक्
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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