SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० उसके अप्राप्त होने से फिर शोच करता है और कष्ट होता है, तब उसके त्याग की इच्छा करता है । और जब चित्त में लोभ उत्पन्न होता है, तब ग्रहण की इच्छा करता है तथा पदार्थ की प्राप्ति होने पर हर्ष को प्राप्त होता है, अप्राप्ति होने पर क्रोधित होता है। इस प्रकार जब कि अनेक वासनाओं करके चित्त युक्त होता है, तब जीव को बन्ध होता है । योगवाशिष्ठ में भी कहा है स्नेहेन धनलोभेन लाभेन मणियोषिताम् । आपातरमणीयेन चेतो गच्छति पीनताम् ॥ १॥ अर्थात् स्त्री-पुत्रादिकों में स्नेह करके, धन के लोभ करके, मणियों और स्त्री आदिकों के लाभ करके चित्त दीनता को प्राप्त होता है ।। १॥ बन्धो हि वासनाबन्धो मोक्षः स्याद्वासनाक्षयः । वासनास्त्वं परित्यज्य मोक्षार्थित्वमपि त्यज ॥ २ ॥ चित्त में अनेक प्रकार के भोगों की वासना ही पुरुष के बंधन का कारण है । समग्र-रूप से वासना के क्षय हो जाने का नाम ही मोक्ष है । हे राम ! जब तुम वासना का त्याग करोगे और मोक्ष की इच्छा न करोगे, तब सुखी हो जाओगे ।। २ ।। प्रश्न-आपने कहा है कि जब तक चित्त में वासनाएं भरी हुई हैं, तब तक इसकी मुक्ति कदापि नहीं होती है, सो संसार में निर्वासनिक पुरुष तो कोई भी नहीं दिखाई देता है, क्योंकि जितने गृहस्थाश्रमी हैं, उनके चित्त में स्त्री, पुत्र,
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy