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________________ आठवाँ प्रकरण | मूलम् । तदा बन्धो यदा चित्तं किञ्चिद्वाञ्छति शोचति । किञ्चिन्मुञ्चति गृह्णाति किञ्चिद्दृष्यति कुप्यति ॥ १ ॥ पदच्छेदः । -0------ तदा, बन्ध:, यदा, चित्तम्, किञ्चित्, वाञ्छति, शोचति, किञ्चित् मुञ्चति, गृह्णाति किञ्चित्, हृष्यति, कुप्यति ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । यदा=जब चित्तम् =मन वाञ्छति चाहता है। किञ्चित् = कुछ शोचति शोचता है किञ्चित् = कुछ मुञ्चति=त्यागता है। किञ्चित् = कुछ गृह्णाति = ग्रहण करता है हृष्यति प्रसन्न होता है कुप्यति दुःखित होता है तदा=तब बन्धः=बन्ध है || भावार्थं । पहले के सात प्रकरणों द्वारा अष्टावक्रजी ने सब प्रकार से जनकजी के अनुभव की परीक्षा कर ली । अब इस आठवें प्रकरण में चार श्लोकों द्वारा अपने शिष्य के अनुभव की श्लाघा को करते हैं हे जनक ! जो तूने पूर्व कहा है कि मुझ अनन्त - स्वरूप आत्मा में त्याग और ग्रहण करने की कल्पना नहीं है, सो तूने ठीक कहा है । क्योंकि जब चित्त विषयों की इच्छावाला होकर किसी पदार्थ की प्राप्ति की इच्छा करता है और
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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