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________________ १२३ आठवाँ प्रकरण । धनादिकों की प्राप्ति की वासनाएँ भरी रहती हैं। यदि कोई पुरुष ईश्वर का स्मरण और दानादिकों को करता है, तो उसके चित्त में यही कामना रहती है कि मेरे धनादिक सर्वदा बने रहें, निर्वासनिक होकर कोई भी नहीं करता है। और जितने त्यागी, साधु और महात्मा कहलाते हैं, उनके चित्त में भी अनेक प्रकार की कामनाएँ भरी हुई हैं। कोई मठों को बनाता है, कोई सेवकी को बढ़ाता है, निर्वासनिक तो उनमें भी कोई नहीं दिखाई देता है । यदि निर्वासनिक होवें, तो वेषों को, चेलों को और मठों को क्यों बढ़ावें, और क्यों प्रपंच को फैलावें, अतएव सब कोई प्रपंच को फेलाते हैं क्या गृहस्थ, क्या संन्यासी । इस हालत में कोई भी ज्ञानी नहीं सिद्ध होता है। ज्ञानी के अभाव होने से मुक्ति का भी अभाव ही सिद्ध होता है ? | उत्तर-जैसे एक वन में एक ही सिंह रहता है और स्यार मृगादिक लाखों रहते हैं वैसे ही संसार-रूपी, गृहस्थाश्रम-रूपी, अथवा संन्यासाश्रम-रूपी वन में वासना से रहित ज्ञानवान् कोई एक विरला ही होता है और वासना से भरे हुए अनेक होते हैं । जैसे सिंह के मारे हुए शिकार को स्यार आदिक खाते हैं, वैसे निर्वासनिक पुरुषों के चिह्नों को धारण करके अर्थात् ज्ञान की बातें सुना करके और वैराग्यादिकों को दिखलाकर, बहत से मों को वञ्चक संन्यासी या गहस्थ आचार्यांदिक ठगते हैं, वे ही संसार के स्यार हैं। इसमें एक दृष्टान्त को कहते हैं एक ग्राम में जुलाहे बसते थे। उन्होंने आपस में एक दिन सलाह किया कि चलो, रात्रि को क्षत्रियों के ग्राम को
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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