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________________ हमेशा ऐसा कहते थे क्योंकि अंदर से जिसका 'मैं' और 'मेरा' चला गया, उसके राग-द्वेष जड़-मूल से चले गए। अब जो बचा है वह सब ड्रामे का खेल है। राग-द्वेष व्यतिरेक गुण हैं। वह मूल आत्मा का गुण नहीं है और जड़ का भी नहीं है। दिखाई ज़रूर देते हैं लेकिन हैं नहीं। राग-द्वेष पुद्गल के गुण माने जाते हैं, लेकिन परमाणुओं के नहीं। मूल में वे नहीं हैं, विकृति में हैं। पुद्गल अर्थात् पूरण-गलन। पुद्गल में राग-द्वेष होना, वह संसार कहलाता है और यदि नहीं हों तो वह ज्ञान, मुक्त! ज्ञान मिलने के बाद मूर्छा उत्पन्न नहीं होती। मूर्छा अर्थात् स्त्रियाँ सुंदर साड़ी देखकर कैसी मूर्च्छित हो जाती हैं! आत्मा-वात्मा सबकुछ भूल जाती हैं। वह प्राकृतिक स्वभाव की मूर्छा है। ज्ञान मिलने के बाद उसे चारित्र मोह कहा गया है। जिसमें राग-द्वेष का अभाव हुआ, वही अहिंसक! जितने राग-द्वेष उतना रोग! कोई बहुत दुःख देता है तो वह द्वेष का रोग है। बहुत दुःख नहीं दे, जल्दी दवाई मिल जाए तो वह राग की वजह से है। कुछ भी करो लेकिन राग-द्वेष मत करो। पिछले हिसाबों का निबेड़ा ला दो। प्रतिक्रमण करके छूट जाओ। राग-द्वेष रहित का ज्ञान-दर्शन, वह शुद्ध ज्ञान-दर्शन कहलाता है ! [2.2 ] पसंद-नापसंद पसंदगी-नापसंदगी (लाइक एन्ड डिसलाइक) जो रहती हैं, वह भरा हुआ माल है। टूटी हुई बेन्च हो और अच्छी बेन्च हो तो लाइकिंग अच्छे के लिए ही होती है। उसमें हर्ज नहीं है लेकिन अगर उसमें अहंकार मिल जाए तो राग-द्वेष होंगे! डिस्चार्ज राग-द्वेष को भी पसंदगी-नापसंदगी कहा जाता है। भोजन में भी जो भाता है और नहीं भाता, वह अंदर के परमाणुओं की दखल 26
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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