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________________ शुद्धात्मा का स्वभाव राग-द्वेष वाला है ही नहीं, वीतराग है। पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) का स्वभाव रागी-द्वेषी है। वह भी वास्तव में साइन्टिफिकली तो परमाणुओं का आकर्षण-विकर्षण ही है। राग-द्वेष कब होते हैं? अगर अंदर उसका कर्ता बने तो! अब अंदर कोई कर्ता रहा ही नहीं न! तो फिर महात्माओं को राग-द्वेष होंगे कहाँ से? आकर्षण बंद होने पर वीतरागता उत्पन्न होती है। दादा में भी भरा हुआ माल है लेकिन आकर्षण नहीं होता कहीं भी! अंदर राग-द्वेष के प्रति अभिप्राय बदल गया, इसलिए वह वीतराग है। 'नहीं है मेरा' कहा कि जुदा हो जाते हैं। फिर राग-द्वेष नहीं होते। कौन सा 'मेरा' और कौन सा 'मेरा' नहीं है, दादाश्री ने हमें ज्ञान से वह बता दिया है। मन विरोध करे तो उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन राग-द्वेष नहीं होने चाहिए। मन के ज्ञाता-दृष्टा रहेंगे तो वीतराग रहा जा सकता है। चेहरा बिगड़ जाए तो भी राग-द्वेष हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह तो पुद्गल की क्रिया है। जब चेहरा बिगड़े और वह खुद को अच्छा नहीं लगे तो वह खुद उससे जुदा ही है। अब अंदर अच्छा-बुरा जो होता है वह भरा हुआ माल निकल रहा है। उसे 'देखना' है और बहुत फोर्स वाला हो तो उसका प्रतिक्रमण करना है। निज कषाय ही निज को दुःख देते हैं, अन्य कोई नहीं। जब तक विषय है तब तक आत्मा का स्पष्ट वेदन नहीं हो सकता। जहाँ वह खत्म होता है, वहाँ पर भगवान की हद और भगवान की हाज़िरी रहती है! दादाश्री ने शुद्धात्मा पद दिया तभी से राग-द्वेष का एक भी परमाणु नहीं रहा। गारन्टेड मोक्ष मिल गया। अब मात्र आज्ञा का पालन ही करना रहा। फिर संसार अस्त हो जाएगा। दादाश्री के महात्मा लड़े-झगड़ें तो भी वीतराग ही हैं! दादाश्री 25
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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