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________________ केवलज्ञान होने तक प्रज्ञा ही ज्ञाता - दृष्टा रहती है। प्रज्ञा अर्थात् आत्मा का ही भाग । बारीक कातना हो तो प्रज्ञा ज्ञाता - दृष्टा कहलाएगी और मोटा कातना हो तो आत्मा ज्ञाता-दृष्टा कहलाएगा। ध्याता - ध्यान और ध्येय कौन है ? ज्ञान मिलने के बाद प्रज्ञा ध्याता बनती है और ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' वह ध्येय | ध्याता - ध्येय की एकता हो जाने पर ध्यान उत्पन्न होता है । ज्ञान, विज्ञान और प्रज्ञा क्या है ? जब तक करना पड़े तब तक ज्ञान है और विज्ञान अपने आप ही हो जाता है ! और प्रज्ञा उन दोनों की बीच की स्थिति है। I ज्ञान शास्त्रों में होता है और विज्ञान ज्ञानी के हृदय में रहता है प्रज्ञा स्व के साथ अभेद और बुद्धि से तो बिल्कुल भिन्न है । सावधान करने वाला और सावधान होने वाला एक ही है ? अंत में तो एक ही है। दो चीजें हैं ही नहीं । सावधान करते समय और सावधान होते समय उसके पर्याय बदलते हैं। आत्मा विभाविक हो गया है संयोगों के दबाव की वजह से, इसीलिए अलग हो गया है। जब पूर्ण स्वभाव में आ जाता है तब जुदाई नहीं रहती, अभेद हो जाता है । जब केवलज्ञान हो जाता है तब अज्ञा, अहंकार खत्म हो जाता है और दूसरी तरफ प्रज्ञा भी खत्म हो जाती है । जिस प्रकार सांसारिक व्यवहार चलाने के लिए यह अज्ञा और अहंकार उत्पन्न हुए उसी प्रकार ज्ञानी से ज्ञान मिलने के बाद मोक्ष में ले जाने के लिए प्रज्ञा उत्पन्न हुई। जब संसार खत्म हो जाता है तभी प्रज्ञा का काम पूर्ण होता है या फिर केवलज्ञान होने पर प्रज्ञा का काम खत्म होता है। अतः फिर अंत में जो बचता है वह मात्र ज्ञान हैं ! केवलज्ञान ! वही, केवल आत्मा ही ! संपूर्ण अभेदता प्राप्त हो, इसका मतलब क्या है ? अभेदता अर्थात् तन्मयाकार। एक हो जाते हैं हम । ज्ञान मिलने के बाद महात्माओं को 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का विश्वास हो गया है, प्रतीति बैठ गई है। थोड़ा अनुभव 23
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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