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________________ १५८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : पार्श्वनाथ भगवान की वीतरागता की बात है न कि धरणेन्द्र देव ने उनका रक्षण किया और कमठ ने उन पर उपसर्ग किए, तो भी भगवान की समदृष्टि अर्थात् दोनों पर एक सरीखा भाव। इस पर द्वेष नहीं और इस पर राग नहीं। दादाश्री : कमठ पर जिन्हें बिल्कुल द्वेष नहीं और धरणेन्द्र पर जिन्हें राग नहीं, उपकारी के प्रति राग नहीं और जो भयंकर अपकारी है, उस पर किंचित्मात्र भी द्वेष नहीं। लेकिन वीतरागों के पास उसका विवरण होता है कि यह इसके पुण्य कर्मों का उदय है अतः यह पुण्य कर्मों का उदय भोग रहा है। यह पाप कर्म का उदय है। यह पाप कर्म का उदय भुगत रहा है। वीतराग खुद वीतरागता में रहते हैं, जानते तो सभी कुछ हैं। वे ऐसे नहीं हैं कि उनके आसपास जो हो रहा है, उसे जानते न हों। उदासीनता से शुरुआत जो बदबू मारता है उस पर द्वेष होता है और जहाँ सुगंधि आती है उस पर राग होता है। ये जो दो दखल हुई हैं न, उसी से संसार खड़ा हो गया है। और उसमें इनमें से कुछ है ही नहीं। यह सारी सिर्फ संसार व्यवस्था है। यह पूरी समाज व्यवस्था है। अच्छा और बुरा, ऐसा और वैसा! हर एक देखने की चीज़ को, ज्ञेय को देखते हैं वे। देखते हैं लेकिन राग-द्वेष नहीं होते। उसका कारण यह है कि ज्ञेय को ज्ञेय के रूप में ही देखते हैं। अच्छा और बुरा वहाँ पर है ही नहीं। अच्छा-बुरा वगैरह सब भ्रांति है। हाँ, लोग गाय का गोबर हाथ में लेते हैं पर इंसान का नहीं लेते। यह भी गोबर ही है न! इसका क्या कारण है? तो वह यह है कि, उसे मन में लगता है कि, 'ओहोहो!' अर्थात् उसने खुद ने ही इन सब की कीमत लगाई है। खुद ने ही वैल्युएशन की है यह। कुदरत के घर में
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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