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________________ [२.५] वीतरागता १५७ प्रशस्त राग की वजह से नहीं है वीतराग इसीलिए तो ज्ञानी वीतराग कहलाते हैं । जहाँ बिल्कुल भी पौद्गलिक राग नहीं है, ऐसे वीतराग । पौद्गलिक राग-द्वेष नहीं रहे हैं । आप भी वीतराग कहलाओगे लेकिन अभी आपमें प्रशस्त राग है । प्रश्नकर्ता : दादा भगवान से प्रार्थना कीजिए कि इस जन्म में ज्ञानीपुरुष वीतराग न हो जाएँ। वे वीतराग हो जाएँगे तो किसी के हिस्से में नहीं आएँगे। दादाश्री : हाँ, वह ठीक है । होना संभव ही नहीं है ! काल भी ऐसा है। वीतराग हो सकें, ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : इस काल में हुआ ही नहीं जा सकता ? दादाश्री : हुआ ही नहीं जा सकता। उसके लिए आपको सिफारिश नहीं करनी पड़ेगी। प्रश्नकर्ता : तो फिर हमें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है । दादाश्री : नहीं, चिंता करने की ज़रूरत नहीं है । इस काल की हद ही ऐसी है कि संपूर्ण वीतराग नहीं हो सकते । हो ही नहीं सकते, संपूर्ण वीतराग । समत्व की समालोचना प्रश्नकर्ता : समत्व का अर्थ क्या है ? दादाश्री : वीतरागता ! गालियाँ देने वाले पर द्वेष नहीं और मान देने वाले पर राग नहीं होता । कोई मान दे तो अच्छा लगता है । उसके लिए हम छूट देते हैं । उसे लाइक - डिसलाइक कहते हैं । और जो संपूर्ण वीतरागता है, वह अलग पद है। अब इसमें तो जब मान देते हैं तो अच्छा लगता है, राग नहीं होता । मान देने वाला जो होता है न, वह अच्छा लगता है। उसी को राग कहा जाता है । इसमें तो मान मिलने की अवस्था अच्छी लगती है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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