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________________ [२.२] पसंद-नापसंद १०७ दादाश्री : होता है न। सभी में, वह हर एक चीज़ में होता है। भोजन नहीं भाना और पसंद नहीं आना, उन दोनों में बहुत फर्क है। उसे खट्टा खाना हो फिर भी खा नहीं पाए तो वह और भी अलग चीज़ है। उसमें अंदर परमाणु की दखल है। वे नहीं खाने देते। दस साल पहले शायद आप कहते होंगे कि मुझे गुड़ का लड्डू नहीं भाता और आज आप कहते हो कि गुड़ का भाता है लेकिन शक्कर का नहीं भाता। इसका क्या कारण है ? साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स! अंदर परमाणु बदल गए। अंदर जो माँगने वाले हैं, वे सभी बदल गए जबकि व्यवहारिक व्यक्ति को ऐसा समझ में आता है कि यह सब मैं ही कर रहा हूँ। हम अगर उससे पूछे कि, 'यदि तू कर रहा है, तब फिर यदि तुझे खाना है तो तू क्यों नहीं खा पा रहा है ?' 'लेकिन मैं क्या करूँ? नहीं भाता' ऐसे कहता है। अरे, लेकिन क्यों? तुझे खाना है और नहीं भाता तो मुझे यह बता कि इसमें दखल किसकी है? वह यही समझता है कि मुझे इसलिए नहीं भाता क्योंकि मेरा स्वभाव ऐसा हो गया है। अब ऐसा कैसे समझ में आएगा? अन्य कोई दखल है, उसकी खबर ही नहीं है न? दादा की पसंद-नापसंद प्रश्नकर्ता : अक्रम ज्ञानी को पसंदगी-नापसंदगी रहती है क्या? दादाश्री : पसंदगी-नापसंदगी सिर्फ दिखाने को होती है। नाटकीय। नाटक में जो पसंद न हो उस पर द्वेष नहीं और जो पसंद है उस पर राग नहीं। प्रश्नकर्ता : ज़रा उदाहरण देकर समझाइए न! नाटकीय पसंदगीनापसंदगी। दादाश्री : 'भिक्षा देना मैया पिंगला' कहता है न लेकिन अंदर मन में समझता है कि 'मैं लक्ष्मीचंद हूँ, यह नाटक नहीं करूँगा तो मेरी तनख्वाह काट लेंगे'। इसलिए रोता है, बनावटी रोता है। अब उसे देखकर चार लोग घर छोड़कर चले गए, वे वापस नहीं आए। वे समझे कि
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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