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________________ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) वास्तव में इस बेचारे को इतना दुःख हो रहा है। उसे पूछा होता तो पता चलता कि यह नाटक में है । 'मैं लक्ष्मीचंद तरगाडा हूँ', ऐसा जानता है न वह ? १०८ प्रश्नकर्ता : हाँ, वह तो जानता है । ठीक है । दादाश्री : हाँ। इसलिए आप जानते हो कि मैं शुद्धात्मा हूँ और चंदूभाई का नाटक करते रहो । नाटक तो करना पड़ेगा न, हूबहू ! ये पसंदगी-नापसंदगी वगैरह सब शरीर का स्वभाव है । शरीर का अर्थात् स्थूल का, पुद्गल का स्वभाव है । आपको जो होता है वह रतिअरति कहलाता है। जब दादा आते हैं तो हर एक व्यक्ति सेफसाइड (दादा के नज़दीक बैठने की जगह) ढूँढता है या नहीं ढूँढता ? तो सेफसाइड पर बैठना रति कहलाता है । तब अगर कोई पूछे, 'अरे, आपने दादा का ज्ञान लिया है न ? यह रति क्यों है आपको ?' इस पुद्गल का स्वभाव ही ऐसा है। जहाँ अच्छी जगह होती है पहले वहीं जाकर बैठता है। फिर अगर कोई कहे कि 'आप इस गद्दी पर क्यों बैठे हो, नीचे बैठो' तो मैं नीचे बैठ जाऊँगा भाई ! उससे आंतरिक वातावरण चेन्ज नहीं होता, एक बूँद बराबर भी नहीं । अतः रति- अरति तो रहेंगे ही अंत तक। यह तो पुद्गल का स्वभाव है। प्रश्नकर्ता: क्रमिक के जो ज्ञानी होते हैं, उन्हें यदि सिर्फ इफेक्ट ही है ? तो रति- अरति ही होता है ? दादाश्री : जितना उनका अहंकार शुद्ध करना बाकी है, उतने में ही उन्हें राग-द्वेष होते हैं और बाकी के भाग में सिर्फ रति- अरति ही रहती है। बाहर के लोगों को तो सभी चीज़ों में राग-द्वेष होते हैं। छोटीछोटी बातों में भी राग और द्वेष । यह ज्ञानी होने का फल है । आधा ज्ञान हो तो आधा। जितना अहंकार कम हुआ उतने राग-द्वेष कम हो जाते हैं । जितना साबुत है, उसमें राग-द्वेष होते हैं। ये सारी बातें बहुत सूक्ष्म हैं! आपको तो इतनी ही समझनी हैं । मेरी पाँच आज्ञा का पालन करो। उसी में हैं आपके कॉज़ेज़ ! बाकी सब इफेक्ट है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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