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________________ लेखकीय जिनशासन के कथानुयोग में श्रीपालकथा एक महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय I ग्रंथ है । चैत्र और आसोज (कुंवार) महिने की शाश्वत ओली में सभी जैन संघों में इस ग्रंथ पर प्रवचन होते है । कई महापुरुषों ने अनेक भाषाओं में इस पर रसप्रद निवेदन किया है I पूज्य तत्त्वज्ञ मुनिश्री पूर्णानन्दसागरजी म. सा. शाश्वती ओली में किसी न किसी एक श्रीपाल कथा पढ़ने के लिए छोटे छोटे साधु महात्माओं को आज्ञा करते । अलग-अलग श्रीपालकथाएँ पढ़ते पढ़ते कुछ समस्याएँ खड़ी होती, उनके निवारण के लिए पूछने पर पू. तत्त्वज्ञमुनिश्री ने वर्तमान श्रीपाल कथाओं के मूल समान पू. आ. देव श्री रत्नशेखरसूरि म. द्वारा प्राकृत भाषा में रचित ‘सिरि सिरिवाल कहा' पढ़ने के लिए सूचन किया । यह ग्रंथ पढ़ते लगा कि ग्रंथरचना की मर्यादा के कारण हर श्रीपाल - कथा में कोई न कोई कथांश गौण किया गया है । इससे सुरत-शिखरजी के संघ दरम्यान एक छोटा प्रयास किया और सिरिसिरिवाल कहा ग्रंथानुसार सर्व कथांशो को लेकर १९५२ श्लोक प्रमाण संपूर्ण 'श्रीपाल मयणाऽमृत काव्यम्' की रचना हुई । लगभग ६ मास तक श्रीपाल कथा चित्त में घूमने के कारण व्याख्यान या चिंतन के समय नईनई तत्त्व-स्फुरणाएँ होती रही । ये बार-बार ओली के व्याख्यान में आने लगी । श्रीपाल कथा में मयणा की महत्ता से श्रीपाल की उपादान -शुद्धि, आराधक भाव, गुणवैभव, गंभीरता, सरलता, सहज कर्मोदय का स्वीकार आदि अनेक बाबतें ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगने लगी । I
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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