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________________ कायात्सग विद्युत प्रवाह के सामर्थ्य-इन दोनों पर निर्भर है। दूसरी विशेष बात यह है कि जहा हमारे अन्य ऊतकों में प्रतिदिन लाखों और करोड़ों की संख्या में निकम्मी और मृत कोशिकाओं का स्थान नई और स्वस्थ कोशिकाएं ले लेती हैं, वहां स्नायविक कोशिकाओं को उनके पुरानी या मृत होने पर भी बदला नहीं जा सकता। ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु बढ़ती है, स्नायविक कोशिकाओं की संख्या निरंतर घटती जाती है। यदि किसी भी कारण से हम उन्हें आहत कर देते हैं (उदाहरणार्थ-मानसिक दबाव के रूप में उनसे अधिक कार्य लेने पर ऐसा घटित होता है), तब हम सदा-सदा के लिए उन्हें गवां देते हैं, जो अपने पीछे अपूरणीय क्षति छोड़ जाती है। संकल्पपूर्वक यदि संपूर्ण शिथिलीकरण को जागरूकता के साथ-साथ किया जाता है, जिसे कायोत्सर्ग कहा जाता है, तो हम उपरोक्त प्रकार की थकान, क्षति से बच सकते हैं। कायोत्सर्ग के द्वारा मांसपेशियों रूप विद्युत्-चुम्बकों को विद्युत् पहुंचाने वाले तारों (स्नायुओं) का सम्बन्ध नींद की अपेक्षा और अधिक क्षमतापूर्वक स्थगित किया जा सकता है। इसके विद्युत् के प्रवाह को करीब-करीब शून्य तक पहुंचा कर ऊर्जा के व्यय को न्यूनतम बनाया जा सकता है। कायोत्सर्ग से तनाव-मुक्ति अनेक घंटों की अव्यवस्थित निद्रा की अपेक्षा आधा घंटा के सधे हुए कायोत्सर्ग से व्यक्ति के तनाव और थकान को अधिक भली-भांति दूर किया जा सकता है। कायोत्सर्ग की साधना हमारी सचेतन इच्छा-शक्ति के शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को व्यक्त करने वाली एक साधना है। हमारी यह इच्छा शक्ति किसी आततायी तानाशाह की तरह हाथ में चाबुक लेकर अपनी शक्ति के बल पर दूसरों को चलाने वाली नहीं, अपितु उस स्नेहमयी माता की तरह है जो ममता और धैर्य के द्वारा अपने जिद्दी बच्चे को ठीक करती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग कभी भी बल-प्रयोग, तनातनी या हिंसक भावों से नहीं, अपितु विनम्र निवेदन-मूलक स्वतः-सुझावों से ही सधता है। स्वयं-सूचना की विलक्षण चिकित्सा-शक्ति प्राचीन युग में मनुष्य और पशु दोनों की ऐसी आन्तरिक संज्ञाएं उपलब्ध थीं, जो अपने आपको स्वस्थ रखने के लिए उन्हें क्या करना है, उस दिशा में मार्ग-दर्शन करती रहती थीं। कालान्तर में पशुओं में संज्ञाएं Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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