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________________ रत्नचूल ने पूछा-'तुम कौन हो?' 'राजन्! मैं राजा मृगांक का दूत हूं, जो आपका शत्रु है, जिसको सताने के लिए, जिसका राज्य छीनने के लिए आप आए हैं।' रत्नचूल ने सोचा-ऐसा व्यक्ति, जो दिव्य लग रहा है, दूत तो हो नहीं सकता। रत्नचूल बोला-तुम दूत तो नहीं लगते। सच्ची बात बताओ।' 'मैं दूत बनकर आया हूं।' 'तुम दूत भी हो और व्यवहार भी नहीं जानते। विरोधी राजा का दूत भी आएगा तो नमस्कार करेगा, शिष्टाचार का पालन करेगा, अभिवादन करेगा। तुम कैसे दूत हो? तुमने न हाथ जोड़े, न सिर झुकाया, कुछ भी नहीं किया। तुम बिल्कुल अलग लग रहे हो।' राजा रत्नचूल ने सोचा-यह कोई देव है या कोई अपूर्व मानव। लगता है हमारी परीक्षा करने के लिए आ गया है। नूनं कश्चिदपूर्वोऽयं, देवो वा मानवोऽथवा। परीक्षां कर्तुमायातो, मद्बलस्यापि गौरवात्।। राजा रत्नचूल भी विकल्पों में उलझ गया। जब कोई नई घटना, नया वातावरण सामने आता है तब आदमी निर्णय नहीं कर पाता, उलझ गाथा जाता है। परम विजय की रत्नचूल ने कुछ क्षण चिन्तन के पश्चात् पूछा-'कुमार! यह तो बताओ, तुम किस देश से आए हो? मेरे पास क्यों आए हो?' 'राजन्! मैं कहां से आया हूं, यह तो अभी नहीं बताऊंगा पर क्यों आया हूं इसका उत्तर देना चाहता हूं। राजन्! तुम अन्याय कर रहे हो। यह अच्छा नहीं है। मैं तुम्हें समझाने के लिए आया हूं।' ____ जम्बूकुमार अब दूत नहीं रहा, अवधूत बन गया। अवधूत का काम है शिक्षा देना। वह शिक्षा देने लगा-रत्नचूल! मैं मानता हूं तुम विद्याधरपति हो, शक्तिशाली हो पर तुम जो अन्याय कर रहे हो, किसी कमजोर को सता रहे हो, वह अच्छा नहीं है। मैं यह कहने के लिए आया हूं कि तुम इस अन्याय को बंद करो, लड़ाई को बंद करो, सेना का घेरा हटा लो, तुम दुराग्रह में मत फंसो। एक कन्या के लिए इतना बड़ा संग्राम कर रहे हो, यह उपयुक्त नहीं है।' संति योषित् सहस्राणि, सुलभानि पदे पदे। तवानयैव किं साध्यं, नेति विद्मोऽधुना वयम्।। 'हजारों-हजारों कन्याएं, सुन्दर स्त्रियां पग-पग पर मिलती हैं। उस स्थिति में एक कन्या के लिए तुमने इतना बड़ा युद्ध शुरू कर दिया। इसके द्वारा तुम क्या सिद्ध करना चाहते हो?'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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