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________________ एकस्मिन् मनसः कोणे, पुरुषामुत्साहशालिनाम् । अनायासेन सम्मांति, भुवनानि चतुर्दश ।। जिसमें उत्साह और संकल्प का बल है, उसके मन के एक कोने में चौदह लोक समा जाते हैं। बिना प्रयत्न के समा जाते हैं, कोई कठिनाई नहीं होती। दृढ़ निश्चय, दृढ़ आस्था, दृढ़ विश्वास, दृढ़ संकल्प हो तो असंभव जैसी बात संभव बनने लग जाती है। यह हमारे संकल्प का चमत्कार है। जम्बूकुमार ने दृढ़ संकल्प का प्रयोग किया, सब सम्मोहित हो गए। सब देखते रहे, पर किसी की हिम्मत नहीं हुई, कोई कुछ बोल नहीं सका, कोई कुछ कर नहीं सका। वह निर्विघ्न सेना की छावनी को पार कर गया। राजा रत्नचूल के पास पहुंच गया। कक्ष के भीतर हैं विद्याधरपति रत्नचूल और बाहर पहरा दे रहे हैं संतरी । वह दरवाजे पर गया, जाते ही द्वारपाल से बोला'द्वारपाल ! जाओ, राजा से कह दो। एक व्यक्ति बाहर खड़ा है, आपसे मिलना चाहता है। ' जम्बूकुमार इस प्रकार बोला, ऐसी भाषा में बोला कि द्वारपाल हतप्रभ हो गया। पुद्गलों की इतनी चामत्कारिक शक्ति होती है, एक बात ऐसी कही जाती है कि सामने वाला एकदम झुक जाता है । द्वारपाल सहम गया, तत्काल भीतर आया। रत्नचूल से बोला- 'महाराज ! जय हो। एक कोई आदमी आया है। अजनबी है। ऐसा आदमी मैंने आज तक देखा नहीं। बाहर खड़ा है। बहुत रोब के साथ कह रहा है कि मुझे जल्दी मिलना है। तुम आज्ञा प्राप्त करो। महाराज ! है तो कोई विचित्र प्राणी । लाऊं या नहीं ?' रत्नचूल के मन में भी मिलने की इच्छा प्रबल हो गई, बोला- 'उसे जल्दी भीतर लाओ।' द्वारपाल बाहर आया, बोला–‘भाई ! तुम बड़े सौभाग्यशाली हो । महाराजाधिराज ने तुम्हें जल्दी बुलाया है।' ४० जम्बूकुमार भीतर गया। उसने अभिवादन किया, न हाथ जोड़ा, न सिर झुकाया, न मधुर शब्द बोला, एकदम खड़ा हो गया। रत्नचूल यह देखकर विस्मित हो गया। जम्बूकुमार के चेहरे का ओज और तेज उसे मुग्ध बना रहा था। मुख की कांति विशिष्ट होने की सूचना दे रही थी - दृष्ट्वा तं रत्नचूलोऽथ, क्षणं विस्मयमाप सः । कथं संभावि दूतत्वमस्यकांतिमतः स्वतः ।। Pa गाथा परम विजय की W
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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