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________________ 21/ N गाथा परम विजय की दूसरी बात है - बहुकाल दुक्खा - कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता है-इंद्रिय भोग में एक बार सुख मिलता है, तृप्ति होती है पर परिणाम में दुःख मिलता है।' इंद्रिय भोग की किसी प्रवृत्ति को देख लें। एक व्यक्ति नशा करता है। एक बार तो ऐसा लगता है कि बहुत अच्छा लगा। जर्दा, पान पराग आदि खाते हैं। एक बार ऐसा स्वाद, ऐसी सुगंध और ऐसी मिठास दे देते हैं कि खाने वाले को बहुत अच्छा लगता है। पत्रिकाओं में विज्ञापन आते हैं तब खाने वाला मुंह फुलाकर ऐसा कहता है मानो इससे बड़ा स्वर्ग का सुख भी नहीं है। विज्ञापन की भाषा को पढ़ कर आदमी मोह में मुग्ध हो जाता है और सोचता है कि यह नहीं खाया तो जीवन का सार चला गया। नशा करते समय भी आदमी शायद यही सोचता है किन्तु वह यह नहीं सोचता कि इसका परिणाम कितना दुःखद होगा। कुछ दिन एक भाई आया। मैंने पूछा- 'कैसे आये हो?' 'लड़के का ऑपरेशन करवाकर आए हैं।' मैंने पूछा—'क्या हो गया?’ 'महाराज! पान पराग बहुत खाता था। पेट में गांठ बन गई। ऑपरेशन करवाना पड़ा है।' अनेक लोग कहते हैं-जर्दा बहुत खाया और अब कैंसर हो गया । 'प्रभव! अध्यात्म के आचार्यों ने कभी सत्य को नहीं झुठलाया। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि इंद्रिय भोग में सुख नहीं होता पर सुख के साथ उन्होंने दो बातें बतला दीं -सुख होता है क्षणिक और दुःख होता है लंबे समय तक ।' आदमी आवेश में होता है। कषाय का आवेश, क्रोध का आवेश प्रबल होता है तो गाली देता है, हाथ उठा लेता है, मार-पीट कर लेता है और सामने वाले व्यक्ति का खून निकाल देता है। उस समय उसे इन सब कृत्यों में भी रस आता है। किन्तु जब परिणाम आता है, पुलिस पकड़ लेती है, कारावास में बंद कर देती है, मुकद्दमे शुरू हो जाते हैं, कोर्ट में जाना पड़ता है तब सोचता है कि अरे, मैंने कितना बुरा काम किया। इंद्रिय भोग की भी यही स्थिति है। क्षणमात्र के लिए अच्छा लगता है और चिरकाल तक दुःख। दूसरी बात है पगामदुक्खा अनिगाम सोक्खा - इन्द्रिय भोग से प्राप्त सुख और दुःख, दोनों की तुलना करो । दुःख तो है एक क्विंटल जितना और सुख है एक राई जितना । इतना अंतर है। सुख तो बहुत थोड़ा होता है और दुःख ढेर सारा हो जाता है। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया-संसार मुक्ति का विपक्ष है । इससे बंधन की मुक्ति नहीं होती, जन्ममरण का चक्र नहीं मिटता। खाणि अणत्थाणि हु कामभोगा ये काम - भोग अनर्थ की खान हैं। जैसे खान धातु निकलती चली जाती है वैसे ही इन्द्रिय भोग से अनर्थ निकलते रहते हैं। से 'प्रभव! हमने सचाई को झुठलाया नहीं है, सचाई को उजागर किया है। तुम देखो-इंद्रिय चेतना का परिणाम क्या होता है? सुख थोड़ा मिलता है दुःख ज्यादा मिलता है। ' ३१७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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