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________________ ___ संवेदना प्रकट करने आए लोग चले गए। लाओत्से ने उनकी संवेदना को भी नहीं स्वीकारा। पंद्रह दिन के अंतराल के बाद वह घोड़ा-जो भाग गया था-दस घोड़ों के साथ फिर आ गया। मित्रों को पता चला, वे फिर आए, बोले-लाओत्से! तुम बड़े भाग्यशाली हो। घोड़ा अकेला गया था और दस को साथ ले आया।'' लाओत्से बोले-पूरा चित्र सामने नहीं है।' मित्र यह उत्तर सुनकर अवाक् रह गए। लाओत्से न दुःख के प्रसंग में दुःखी बने और न सुख के प्रसंग में सूखी। दो मास बाद लाओत्से का पैर जख्मी हो गया। मित्र आये और बोले-लाओत्से! बहुत बुरा हुआ। तुम्हारा पैर जख्मी हो गया।' ___ लाओत्से ने वही उत्तर दिया-'पूरा चित्र सामने नहीं है।' योग ऐसा मिला कि उन्हीं दिनों युद्ध शुरू हो गया। सेना में अनिवार्य भर्ती का आदेश हो गया। वे मित्र फिर आए, बोले-'लाओत्से! तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुम्हारा पैर जख्मी हो गया। सेना में भर्ती होने का कोई प्रसंग नहीं आयेगा। हम सब लोगों को जाना पड़ेगा।' लाओत्से फिर उसी भाषा में बोले-'पूरा चित्र सामने नहीं है।' पूरा चित्र जब तक सामने नहीं होता तब तक किसी बात का निश्चित उत्तर दिया नहीं जा सकता। पूरा चेत्र सामने हो तो आदमी पूरी बात कह सकता है और सुनने वाला पूरी बात सुन सकता है। जहां इंद्रिय चेतना काम करती है वहां अधूरा चित्र सामने रहता है, पूरा चित्र कभी सामने नहीं आता। जम्बुकुमार ने कहा-'प्रभव! तुम्हारे सामने भी पूरा चित्र नहीं है। तुम पूरी बात को नहीं जानते। धर्म के लोगों ने यह नहीं कहा कि सब कुछ झूठा है। उन्होंने सत्य को झुठलाया नहीं है। देखो, मैं तुम्हें महावीर का एक वचन सुनाता हूं खणमेत्त सोक्खा बहु काल दोक्खा, पगामदुक्खा अनिगाम सोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणि अणत्थाणि हु कामभोगा।। ___ महावीर ने कितना स्पष्ट कहा है-खणमेत्त सोक्खा-सुख है, तृप्ति है, रस है पर क्षणिक है। अच्छा पाने को मिलता है सुख का अनुभव है। अच्छा देखने को मिलता है चक्षु को तृप्ति होती है।' 'क्या महावीर ने सचमुच ऐसा कहा है?' ‘हां प्रभव! यह महावीर का वचन है। उन्होंने साथ में एक बात यह भी जोड़ दी-सुख है किन्तु क्षणभर लिए।' प्रसिद्ध राजस्थानी उक्ति है 'उतर्यो घाटी हुयो माटी।' कोई स्वादिष्ट वस्तु खाई, क्षण भर के लिए ख आता है। कोई एक क्षण के बाद पूछे कि रस कैसा आ रहा है? उत्तर मिलता है-रस समाप्त हो गया, ला गया। एक क्षण के लिए सुख, दूसरे क्षण में सुख समाप्त। ___ 'प्रभव! जो इंद्रिय भोग हैं उनकी एक प्रकृति यह है कि सुख क्षणिक होता है, क्षणभर के लिए होता दीर्घकाल तक नहीं टिकता। आत्मिक सुख वह है जो चिरकाल तक रहता है और शाश्वत भी हो जाता सदा बना रहता है। गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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