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________________ No. गाथा परम विजय की काव्यशास्त्र का एक प्राणभूत तत्त्व है 'रस'। रस के बिना कविता अच्छी नहीं होती, काव्य का महत्त्व नहीं होता। काव्य पढ़ते-पढ़ते रसानुभूति हो जाए तो काव्य की सफलता। भोजन का भी प्राणभूत तत्त्व है रस। भोजन के प्रकरण में षड्स-छह रस बतलाए गए हैं। सब रसों में प्रवर रस माना जाता है लवण। उसके बिना भोजन नीरस बन जाता है। रस होना जीवन की सार्थकता मानी जाती है। एक सामाजिक प्राणी यह मानता है कि रस है तो जीवन अच्छा है। रसयुक्त जीवन सरस बन जाता है। जहां रस नहीं वहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता। आदमी नीरस चीज को फेंक देता है। प्रभव बोला-'कुमार! तुम तो रस को छोड़कर नीरस पथ की ओर जा रहे हो। जीवन में जो रस है उसे त्याग रहे हो। जहां कोई रस नहीं है, कोरा छिलका है, उस मार्ग को चुन रहे हो। यह कैसी समझदारी है? लगता है तुम्हारा चिंतन भी सही नहीं है, दृष्टिकोण भी सही नहीं है।' __ 'कुमार! ये धर्म के लोग कहते रहे हैं-संसार असार है। सब भोग किंपाक फल के समान हैं। सब इनकी दुहाई देते चले जा रहे हैं किन्तु क्या यह सत्य को झुठलाना नहीं है? एक आदमी भोग रहा है उसको रस आ रहा है, सुख मिल रहा है और तुम कह रहे हो कि यह दुःख है। क्या यह एकांगी दृष्टिकोण नहीं है? क्या यह मिथ्या दृष्टिकोण नहीं है? क्या यह सचाई को झुठलाने का प्रयत्न नहीं है?' ___ जम्बूकुमार बोले-'प्रभव! तुम शायद पूरी बात जानते नहीं हो। इधर-उधर की सुनी सुनाई बात के आधार पर तुम कुछ कह रहे हो। जो आदमी पूरी बात को नहीं जानता वह सचाई को पा नहीं सकता। पूरा चित्र सामने होना चाहिए।' एक बार लाओत्से के पास कुछ लोग आए, बोले-'लाओत्से! हमने सुना है कि तुम्हारा घोड़ा भाग गया। यह बड़ी दुःख की बात है।' ___ लाओत्से महान् दार्शनिक संत था, जिसके नाम से ताओ धर्म चलता है। लाओत्से ने सहज गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया-'भाई! पूरा चित्र सामने नहीं है।' इस कथन के साथ ही बात को समाप्त कर दिया।
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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