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________________ गाथा परम विजय की दूसरी कठिनाई यह है-आप हैं भूमिवासी और वे हैं विद्याधर, आकाशगामी। आकाशगामी के सामने भूमिचर कैसे विजय पा सकेंगे? मैं तो मात्र सूचना देने के लिए आ गया था। मैं जा रहा था, सोचा-रास्ते में राजगृह आएगा, कम से कम मैं सम्राट् श्रेणिक को सूचना तो दे दं कि क्या हो रहा है और किसलिए हो रहा है। अब ठहरने का अवसर नहीं है।' श्रेणिक ने सोचा कुमार बहुत छोटा है, पर उसका विवेक प्रबुद्ध है। उसने बहुत विवेकपूर्ण बात कही। यदि हम कोई नहीं बोलते तो अच्छी बात नहीं होती। सबकी लाज कुमार ने रख ली। श्रेणिक बोला–'विद्याधर! कुमार जो कह रहा है, वह युक्तियुक्त बात है। तुम उसका खंडन मत करो। यह ठीक कह रहा है। हम चलते हैं, चलकर विजय पाएंगे।' विद्याधर-'महाराज! आप कह रहे हैं, वह ठीक है परन्तु ऐसा लग रहा है __ यथार्भकः करस्फालैर्ग्रहीतुं जलसंस्थितं। प्रतीच्छतीन्दुबिम्बं हि, तथा युष्मद् प्रजल्पितम्।। एक छोटा बच्चा है। उसे चांद बहुत प्यारा है। वह चांद को पकड़ना चाहता है। चंदा मामा पकड़ में नहीं आया। आगे-आगे चला। चलते-चलते तालाब आ गया। तालाब में देखा तो चांद पास में ही था। बच्चा चांद को पकड़ने के लिए लपका। वह प्रतिबिम्ब को क्या पकड़ेगा? ऐसा लगता है यह छोटा दूधमुंहा किशोर है, नवयुवक है। बात बड़ी कर रहा है। पर यह क्या करेगा? कैसे होगा? संभव नहीं है। एक हास्यास्पद बात है-एक वामन जिसके पास जहाज नहीं है, कह रहा है मैं समुद्र को पार कर जाऊंगा। समुद्र कोई बरसाती नाला या छोटी नदी नहीं है। कैसे पार करेगा? राजन्! आपके लिए यह बड़ा प्रश्न है, जो भूमिचर हैं, वे विद्याधर का सामना कैसे कर पाएंगे?' जम्बूकुमार बोला-विद्याधरवर! तुम्हारी उपमाएं तो अच्छी हैं। तुम युक्ति जानते हो, बोलना भी जानते हो पर उसमें बहुत सार नहीं है। मैं छोटा हूं तो क्या हुआ?' बालोऽहं जगतां नाथ, न मे बाला सरस्वती। अप्राप्ते षोडशे वर्षे, वर्णयामि जगत्त्रयम्।। भोज के सामने एक बारह-तेरह वर्ष की अवस्था का विद्वान आकर खड़ा हुआ। भोज ने कहा-'क्या यह बोलेगा? बात करेगा?' __उसने बहुत मार्मिक उत्तर दिया-राजन्! मैं बाल हूं पर मेरी सरस्वती बाल नहीं है। सोलह वर्ष का नहीं हुआ हूं पर मैं जैसा तीन लोक वर्णन करूंगा, वैसा आपकी सभा का कोई पंडित नहीं कर पाएगा।' जम्बूकुमार बोला-'विद्याधरवर! मैं तुम्हारी हर युक्ति का उत्तर देना चाहता हूं। तुम कहते हो क्या प्रतिबिम्ब को पकड़ना संभव है? मैं प्रतिबिम्ब को नहीं पकडूंगा, चांद पर ही चला जाऊंगा।' 'तुम कहते हो बिना नौका के समुद्र को कैसे तैर सकते हो, पर मैं उसे तैर कर पार कर सकता हूं। तुम भी साथ आ जाओ।' ऐसी चुनौती दी कि विद्याधर देखता रह गया। बड़ा आश्चर्य हुआ।
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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