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________________ गाथा परम विजय की 'हां स्वामी!' 'क्या ईख की प्रकृति को जानती हो ?' 'स्वामी! ईख मीठा होता है पर उसकी और प्रकृति क्या है, यह मैं नहीं जानती।' 'प्रिये! एक कवि ने इक्षु की प्रकृति का बहुत सुंदर चित्रण किया है कान्तोऽसि नित्यमधुरोऽसि रसाकुलोऽसि, चेतः प्रसादयसि सम्प्रति मानवानां । ईक्षो! तवास्ति सकलं परमेकमूनं, यत्सेवितो मधुरतां जहसि क्रमेण ।। इक्षु! तू बड़ा कांत है। कांतोऽसि-कमनीय लगता है। देखने में भी अच्छा लगता है। नित्यमधुरोऽसिचूसने पर बड़ा मीठा लगता है। रसाकुलोऽसि - रस से भरा हुआ है। चूसने वाले के मन को बड़ी प्रसन्नता देता है। चूसने वाला समझता है कि वाह! सब कुछ मिल गया। मिठास के मूल स्रोत हो । सारी मिठाइयां किससे बनती हैं? जो भी मीठा होता है, वह तुम्हारे कारण बनता है। तुम्हारे भीतर सब कुछ है पर एक बात की कमी है— चूसा जाए तब तक ठीक है। जैसे ही चूसना शुरू किया, रसहीन हुआ और कोरा छिलका बन गया। कवि का कथन कितना मर्मस्पर्शी है - इक्षु ! तुम्हारी यह कमी है - जैसे - जैसे तुम्हारा सेवन किया जाता है वैसे-वैसे तुम अपनी मधुरता को, मिठास को छोड़ते चले जाते हो। केवल फीका छिलका रह जाता है, तुम्हें कचरे की भांति डाल दिया जाता है और उस पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं।' जम्बूकुमार उत्प्रेरणा के स्वर में बोला- 'प्रिये ! तुम जरा सोचो। तुम इतना आग्रह कर रही हो, मुझे उपदेश दे रही हो, समझा रही हो । पर तुमने अभी अध्यात्म को नहीं समझा, सत्य को नहीं समझा। वास्तव में सत्य क्या है ? वास्तव में सत्य है - आत्मा में रमण करना । आखिर एक दिन सबको आत्मा की शरण में जाना होगा। वहां गये बिना कोई समाधान भी नहीं है। एक दिन आत्मा की दिशा में जाना होगा और अपने आपको देखना होगा।' 'प्रिये! तुमने सिद्धि और बुद्धि की कथा सुनाई। उनकी दुर्दशा क्यों हुई? इसलिए हुई कि उन्होंने अपने आपको नहीं देखा। ईर्ष्या दूसरे को देखने से उत्पन्न होती है। जो बाहर देखता है, दूसरे को देखता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।' 'प्रिये! तुम इस सचाई का अनुशीलन करो - जिसकी अंतर्दृष्टि जागृत नहीं होती, जो बहिर्मुखी होता है, वह हमेशा दूसरे को ही देखता है, वह कभी स्वयं को नहीं देख पाता । ' जम्बूकुमार ने नभसेना की ओर दृष्टिक्षेप करते हुए पूछा- 'प्रिये ! बच्चा जन्मता है तो सबसे पहले किसको देखता है?' 'स्वामी! मां को।' बाल्ये मातृमुखो जातः-बचपन में मां की ओर देखता रहता है। तारुण्ये तरुणीमुखः–युवा होता है तो स्त्री की ओर देखता रहता है। पुत्रपौत्रमुखो चांते - वह बूढ़ा होता है तब बेटों और पोतों की तरफ ताकता रहता है। यह सोचता रहता है कि कोई थोड़ी सेवा कर दे तो अच्छा रहे। २३५
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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